
पंडित नारायण दत्त तिवारी का नाम लेते ही अब देश की एक संवैधानिक पीठ के कंलकित होने का दृश्य सामने उभर आया करेगा। तिवारी जी पर लगे सेक्स स्कैंडल के आरोप सिद्ध नहीं हैं। फिर भी इस चर्चा मात्र से राष्ट्रीय आजादी के लिए समर्पित सिपाही और देश के नव निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान करने वाले कर्मठ नेता के उपर वे दृश्य भारी साबित होंगे,जब आंध्र राजभवन के बाहर बड़ी संख्या में महिलाएं उन्हे कोसती हुई नारे लगा रही थीं। सार्वजनिक जीवन, खासकर राजनेताओं पर तरह-तरह के आरोप अब आम हो चले हैं। तिवारी जी और उन पर लगे आरोप दोनों आम नहीं हैं। वे प्रजा सोशलिस्ट पार्टी और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की परंपरा वाले कार्यकर्ता रहे हैं। इसी लिए जब केंद्र सरकार ने टी वी चैनलों पर उनके बारे में चल रही खबरों पर राज्य की सरकार से रिपोर्ट मांगी तो वे उसका मंतव्य समझ गये। उन्होंने समय रहते इस्तीफा दे दिया। फिर भी यह दुखद प्रसंग उनके जीवन के साथ जुड़ा रहेगा। जिस नारायण दत्त तिवारी का नाम इलाहाबाद वि·ाविद्यालय छात्र संघ भवन के लिए गर्व और गौरव का विषय हुआ करता है,उस भवन में भाषण करते छात्र नेता अब शायद उनकी परंपरा से जुड़ना पसंद न करें। संभव है कि लखनऊ की गलियों में तिवारी जी की चर्चा करने में लोग शर्म का अनुभव करें, क्योंकि अविभाज्य उत्तर प्रदेश ने उन्हें हमेशा सम्मान की नजर से देखा है। उत्तराखंड के लोगों का सिर तो इससे झुक ही गया है। शर्म और हया की चर्चा आम लोगों के लिए है, उन लोगों के लिए जिन्होंने तिवारी जी को स्वतंत्रता सेनानी.कुशल प्रशासक और जनप्रिय राजनेता के रूप मे देखा है। तिवारी की जनप्रियता ही थी कि उनसे सत्ता के आकांक्षी नेता इसलिए घबराते थे कि वे लोकतंत्र की सबसे बड़ी कुर्सी तक न पहुंच जायं। समय ने ऐसा नहीं होने दिया, और जब वे उम्र के आखिरी पड़ाव पर हैं, इस सार्वजनिक जीवन से उनकी ऐसी विदाई अच्छी नहीं लगती। फिर भी सवाल बना रहेगा कि सेक्स स्कैंडल के आरोप तिवारी जी पर ही क्यों लगते रहे? क्या व्यक्तिगत कमजोरी के वे शिकार हो गये थे? यदि ऐसा है तो सार्वजनिक छवियों के बारे में बनती बिगड़ती धारणाएं एक निश्चित आकार नहीं ले पाएंगी। स्वतंत्रता आंदोलन के बाद वे सुख सुविधाओं के आदी हो चले थे, स्वास्थ्य कारणों से सड़कों की धूल भी उन्हें परेशान करती थी। इसके बावजूद ये सच है कि सुविधाभोगी तिवारी जी पर सुविधा के लिए आर्थिक गड़बड़ियोंका आरोप कभी नहीं लगा। वे लालबहादुर शास्त्री नहीं बन पाये, पर उनकी तरह मिट्टी से जुड़े जरूर रहे। वे नेहरू नहीं हो सके, पर देश के लिए नेहरू की दृष्टि हमेशा उनकेपास रही। काश उनके पिछले कुछ वर्षों को भी इसी रूप में देखने का अवसर मिला होता।
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