Monday 22 August, 2011

Wednesday 26 January, 2011

जल्दी आयें कोर्ट से फैसले

लंबे समय बाद भुवन वेणु ने कुछ लिखने को प्रेरित किया है। लूज शंटिंग पर भुवन वेणु, डॉक्टर तलवार पर उत्सव शर्मा के हमले के बहाने कानून व्यवस्था पर कुछ सवाल खड़े कर रहे हैं। भुवन इसके साथ ही रुचिका गिरोत्रा मामले और बिहार के विधायक की हत्या पर भी चर्चा कर रहे हैं। उनकी चिंता जायज है। यह देखना होगा कि आतंकी मामलों में सुनवाई के लिए जेलों में स्पेशल कोर्ट लगती रही हैं। सीबीआई की ओर से किये जांच के मामलों को सुनने के लिए भी बड़ी संख्या में अदालतें बनाई गई हैं। निश्चित तौर पर इन कोट्र्स में मामले नियमित अदालतों की अपेक्षा जल्दी निपटाये जा रहे हैं। तय है कि इस तरह के विकल्प का रास्ता सामने है। जरूरत है उस पर चलने की इच्छा शक्ति की। फिर सोचना होगा कि हमारी सरकार और उसका कानून मंत्रालय इस रास्ते पर क्यों नहीं चल रहा? आखिर विशेष अदालतें भी तो हमारी सरकार और कानून मंत्रालय ने ही बनाई हैं। एक और आम हो चला उदाहरण भी हमारे सामने है। कई राज्यों में जनता अदालत लगाकर कुछ मसले हल किये जा रहे हैं। जनता अदालतों के सामने भूमि विवाद अथवा ऐसे ही मसले रखे जाते हैं, जिनमें दोनों पक्ष अथवा संबंधित पक्षों को सामने बैठाकर समझौता कराया जा सके। अपराध के भी ढेर सारे मुकदमे ऐसे होते हैं, जो मामूली झगड़ों के होते हैं। पर जिला न्यायालयों में मुंसिफ मजिस्ट्रेट के सामने और फिर, एक एक कर आगे बढ़ता हुआ मुकदमा सरकारी खर्च पर आघात तो करता ही है, झगड़े के दर्द से अधिक, विवाद वाली पार्टियों को आर्थिक तकलीफें भी देता रहता है। कानूनी व्यवस्थापकों को देखना होगा कि ये छोटे मसले निपटाने की समय सीमा तय कर दी जाय। भुवन ने मसला उठाया है आरुषि हत्या और रुचिका गिरोत्रा की मौत पर। फिर बिहार के विधायक राजकिशोर केसरी की हत्या का मामला भी उनकी चर्चा में है। कई आपराधिक मामलों में आरोपी दिखाई देते हैं। पर हम फैसला सिर्फ इस आधार पर नहीं कर देते कि कुछ लोग अपराधी लग रहे होते हैं। यदि अपराधी होने के संकेत भर से फैसला होने लगा तो हम फिर से आदिम समाज में नहीं चले जायेंगे? उस आदिम समाज में जहां बाद के बने हथियार भी नहीं थे। पत्थरों और लकड़ियों को ही हथियार बना लिया जाता था। मैं नहीं कहता कि रुचिका गिरोत्रा मामले में अपराधी साबित हो चुका पुलिस अफसर राठौड़ निर्दोष है। यह भी नहीं कहता कि आरुषि मामले में उसके पेरेंट्स पर करोड़ों लोगों का शक ठीक नहीं है। पर दोनों मामलों में न्याय प्रक्रिया अभी जारी है। हम एक संवैधानिक व्यवस्था के हिस्सा हैं, न कि उस आदिम समाज के जिसमें जब चाहे पत्थर अथवा लकड़ी का टुकड़ा उठाकर किसी पर भी वार कर दिया जाय। साफ है कि उत्सव शर्मा ने राठैड़ और डॉक्टर तलवार पर हमला कर देश की संवैधानिक व्यवस्था को चुनौती दे डाली है। बहस आगे भी होगी कि व्यवस्था को ठीक करने के क्या क्या तरीके हो सकते हैं। पर एक सभ्य समाज में हमला तो कोई समाधान नहीं हुआ ना? हां लोगों का गुस्सा बढ़ने लगे तो उसके कारणों पर चर्चा की जा सकती है। आरुषि और रुचिका के मामले पर किसी की हिंसात्मक प्रतिक्रिया सशस्त्र क्रांति तो नहीं है, यह बात आप सहित संभवतः कई गंभीर विचारक भी मान लेंगे। साथ ही किसी आपराधिक मामले में आरोपियों का दोष तय करने में देर लगे, इसमें यह कहने में संकोच नहीं है कि यह कानूनी प्रक्रिया की विसंगति है। फिर यही कहना होगा कि जनता अदालतें, फास्ट ट्रैक कोर्ट और स्पेशल कोर्ट बनाने वाले नियामक इस पर भी सोचें कि मुद्दे इन कोट्र्स की सीमा से बहुत आगे निकले हुए हैं। ऐसे फास्ट कोर्ट अधिक से अधिक बनें। उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय मुकदमों की सुनाई जल्दी पूरी किया करें। फिर न्यायालयों पर जिम्मेदारी डालने के साथ एक बात और। न्यायलयों में जजों की सीटें खाली रहेंगी तो फैसले जल्दी कैसे होंगे? आम लोग और वकील हाईकोर्ट के बेंच बनाने की मांग करते हैं, तो इसमें गलत क्या है? क्या ज्यादा से ज्यादा कोर्ट और जज बैठाकर न्याय में हो रही देरी पर लोगों का गुस्सा शांत नहीं किया जा सकता?

Saturday 13 March, 2010

ओ बाबा मेरे! जरा बचके!

तुतलाती आवाज में बच्चे ने अपने बाबा से पूछा-आजकल बाबा लोगों को पुलिस पकड़ क्यों रही है? बाबा बिचारे नन्हीं जान को कैसे समझाते कि पकड़े जाने वाले बाबा उनकी तरह के नहीं हैं। वह तो पहुंचे हुए हैं, यानि उनकी पहुंच बहुत उपर तक है। आजकल पहुंच में कुछ कमी आ गई होगी। इसलिए बच नहीं पा रहे। पहले भी लोग शिकायतें करते थे, पर शिकायत करने वाले बहुत कम होते थे। इतने कम कि अंगुलियों पर गिनने के काबिल भी नहीं होते थे। दूसरी तरफ श्रद्धालुओं का अथाह समुद्र हुआ करता था। अब समुद्र में एक बूंद की आवाज कौन सुनता है? वहां तो समुद्र की दहाड़ होती है, कभी-कभी डर की सीमा तक जाने वाली। बूंदों की अनगिनत श्रृंखलाएं मिलकर समुद्र का निर्माण करती हैं। उनमें कुछ अलग भी हो गर्इं तो क्या हुआ? उसी तरह जैसे अपार बहुमत से चुनी हुर्इं सरकारें सदन में कुछ भी पास करा लिया करती हैं, समुद्र में भी बूंदों का समवेत स्वर विद्रोही आवाज को दबा देता है। श्रद्धा के समुद्र में दबी हुई कुछ बूंदे तिलमिलाकर रह जाती हैं। फिर भी नियति अपना रंग दिखाती है, वह समय भी आता है जब उपर वाला आपकी करतूत को सबके सामने कर देता है। बाबा आगे बोले- इन बाबाओं के साथ भी यही हो रहा है,वह सभी कुछ दिखाया जा रहा है जो इनके एकांतिक साधना के सामान हुआ करते थे। जहां मनुष्यों की सांस तक साधना में बाधक हुआ करती थी, अब वहां कैमरे लिए कई कई हाथ-पैर पहुंच रहे हैं। यानि पहुंचे हुओं तक वो लोग पहुंचने लगे हैं जिन्हे अयाचित माना गया है। बच्चा इतनी देर में ऊब चुका था, शायद अपने बाबा को दूसरे बाबाओं की तरह बोलते हुए देखकर घबराने भी लगा था। उसे अचानक पता नहीं क्यों ऐसा लगा कि उसके बाबा के प्यारे चेहरे पर बड़ी बड़ी दाढ़ी निकल आई है। कुर्ता-पाजामा की जगह बाबा के शरीर पर गेरूआ वस्त्र ने ले ली है। बाबा के गले में रुद्राक्ष की कई मालाएं आ जायं, वे कोई मंत्र बोलकर अथवा नागिन डांस कर उसे मोहित करने की कोशिश करें कि, सकपकाया बालक बोल उठा- ओ बाबा मेरे! जरा बचके!

Wednesday 27 January, 2010

संभाल कर रखें इन्हें

समाजवादी पार्टी आखिरकार बॉलीवुड के चकाचौंध से मुक्त हो गई है। शायद यह भारतीय राजनीति और समाजवादी आंदोलन के लिए बेहतर साबित होगा। कभी कांग्रेस की ओर से चुनाव लड़कर अमिताभ बच्चन ने धुरंधर नेता हेमवती नंदन बहुगुणा को उन्हीं की दशकों से बनाई धरती, इलाहाबाद में हरा दिया था। उस चुनाव को याद कर राजनीतिक पंडित आज भी उसे एक जन नेता के अवसान के रूप में देखते हैं। बहुगुणा जी का वह अंतिम चुनाव साबित हुआ, और कुछ समय बाद ही वे नहीं रहे। यह अलग बात है कि अमिताभ बच्चन की भी राजीव गांधी परिवार से नहीं निभी,और उन्होंने लोकसभा ही नहीं, राजनीति भी छोड़ दी। यह उनका व्यक्तिगत फैसला था। आज भी निर्वाचित सांसद सदन के अपने कार्यकाल को पूरा करें अथवा नहीं, यह उन पर निर्भर करता है। फिर भी इस सच्चाई से इंकार नहीं किया जा सकता कि इससे संबंधित क्षेत्र और मतदाताओं को नुकसान पहुंचता रहा है। दक्षिण भारत की तरह उत्तर में भी समाजवादी पार्टी में राजनीति के बीच फिल्म के प्रवेश का बड़ा प्रयास हुआ था। इस प्रयास को अमर सिंह ने समाजवादी पार्टी में बड़े पैमाने पर कर दिखाया था। अब जब कि अमर को मुलायम सिंह यादव के भाइयों के कारण दिक्कतें हुर्इं तो उन्होंने सपा से किनारा कर लिया है। उनके कारण संजय दत्त भी बाहर जाते रहे। नहीं कह सकते कि कल जयाप्रदा और जया बच्चन क्या करेंगी। इन नेताओं को कभी सरकार में रहकर काम करने का मौका नहीं मिला। जयाप्रदा ने जरूर फिरोजाबाद में अपनी हाजिरी बराबर दर्ज कराई। फिर भी याद रखना होगा कि समाजवादी धारा की पार्टी पर मनोरंजन क्षेत्र से आए लोगों का प्रभुत्व हो चला था। यह कहते हुए इस पर आपत्ति नहीं है कि ऐसा नहीं होना चाहिए था। दक्षिण में तो फिल्मी कलाकारों ने विधिवत राजनीति के जरिए समाजसेवा को अपना लिया है। उत्तर में सुनील दत्त ने जरूर बेहतर काम किए, लेकिन फिल्म जगत से जुड़े होने के बावजूद पहले वे एक समाजसेवी थे, बाद में सांसद अथवा मंत्री। सपा में आए कलाकार बराबर अपने व्यवसाय को ही प्राथमिकता देते रहे। यह अमर सिंह के नेतृत्व के चलते हुआ। आज जब वे अपने समर्थक कलाकारों सहित पार्टी से करीब करीब बाहर हैं, तो भी नहीं कह सकते कि पार्टी इस चकाचौंध से बाहर रहना चाहती है। वैसे इसे देखने के लिए इंतजार करना बेहतर है। फिर भी एक बड़ा कारण मौजूद है, जिसके चलते पार्टी नेताओं में खटास बढ़ी थी। वह है यादव परिवार का पार्टा पर आधिपत्य। मुलायम, रामगोपाल, शिवगोपाल और अखिलेश किसी न किसी सदन के सदस्य हैं। परिवार के कुछ और सदस्य इटावा और मैनपुरी की स्थानीय निकायों में हैं।सवाल उठते रहेंगे कि क्या सपा को इन जगहों के लिए दूसरे नेता और कार्यकर्ता नहीं मिले? जवाब खोजने में दिक्कत नहीं होगीष बहरहाल जने·ार मिश्र के निधन और अमर सिंह के बाहर जाने के बाद उनकी जगहों की भरपाई में पार्टी ने सावधानी बरती हैष लगता है, यादव परिवार सावधान हो गया है। ब्राजभूषण तिवारी और मोहन सिंह को इनकी जगह सामने लाकर सपा ने बेहतर भरपाई की कोशिश की है। जने·ार मिश्र अपनी वरिष्ठता और अमर सिंह अपनी आर्थिक और वाचाल शक्ति के जरिए प्रभावी हो चले थे। पर याद करना होगा कि ब्राजभूषण तिवारी और मोहन सिंह का अपना व्यक्तित्व बेदाग ही नहीं, पूरीर तरह समाजवादी आंदोलन की देन है। दोनों का जनता के लिए लड़ने का संकल्प छुपा मसला नहीं है। पार्टी ने यादवों से बाहर जाकर संतुलन बिठाने की कोशिश तो की है, यह भी तय है कि यो दोनों जब बोलते हैं तो लगता है कि देश की परेशान जनता दिखाई दे रही है। देखना है कि समाजवादी पार्टी अथवा यूं कहें कि यादव परिवार इनका ख्याल कब तक रखता है। देखना यह भी होगा कि क्या ये सिर्फ जने·ार और अमर की जगह जातीय भरपाई की कोशिश ही है, अथवा पार्टी इनके संघर्षमय इतिहास को एक बार और जीवंत करना चाहती है। निश्चित ही समाजवादी पार्टी फिर से समाजवादी आंदोलन की धारा को आगे बढ़ाना चाहती है, तो इन्हें संभाल कर रखना ही होगा।

Monday 11 January, 2010

बड़े भाई का बुलावा

फिल्म तारिकाओं और नायक-खलनायकों पर टिकी एक पार्टी, गायकों पर टिकी एक पार्टी। बात हो रही है समाजवादी पार्टा की। अमर सिंह ने पार्टी के पदों से इस्तीफा दिया, तो पार्टी में भूचाल सा आ गया। इसलिए कि उनके बाद नायक और गायक भी उनकी राह पर चलते नजर आने लगे। हो सकता है कि इनमें से कुछ सामाजिक जीवन और राजनीति के भी नायक-गायक हों। एक सच्चाई यह भी है कि ये चुनाव अभियान में समां बांधने का काम किया करते हैं। फिर भी कई ने बयान दिया कि अमर सिंह समाजवादी पार्टी में घुटन महसूस कर रहे हैं,तो उनका भी बहुत सक्रिय रहना मायने नहीं रखता है। कुछ निर्वाचित विधायक तौल रहे थे कि अमर सिंह के प्रति वफादारी में विधान सभा की सदस्यता त्यागने से उन्हे क्या हासिल होगा। खुद अमर सिंह की बात की जाय तो दो तीन दिन में उनके बयान पहले से तल्ख होते गये। यूं तो वैसे भी शेरो-शायरी करते हुए भी वे सहज नहीं लगते। पार्टी के पद छोड़ते समय वे दुबई में थे, ऐसे मौके पर जब वहां दुनिया के सबसे ऊंचे भवन का उद्घाटन हो रहा था। यह ज्ञात नहीं हो सका कि क्या उस समारोह में शामिल होने वालों में अमर सिंह भी शामिल थे? यह संयोग भी हो सकता है, पर अमर सिंह का बार बार दुबई जाना होता रहता है। वे व्यवसायी भी हैं, कह सकते हैं कि इस नाते उन्हें जाना पड़ता है। इस मुद्दे पर हम भी इससे ज्यादा नहीं कह रहे। बात फिर से उनके इस्तीफे पर उठे भूचाल की करें। इस प्रकरण में दो बातें आई। एक यह कि ये अमर सिंह बनाम यादव परिवार का विवाद है, और दूसरा कि अमर सिंह गये तो क्या, पार्टी के लिए पैसा ही सब कुछ नहीं होता। पहली बात का जवाब अमर सिंह ने परोक्ष रूप से दे दिया है कि लड़ाई रामगोपाल यादव बनाम अमर सिंह है। दूसरे पर थोड़ी चर्चा कर ली जाय। बनारस में पार्टी के पूर्व सांसद मोहन सिंह ने कहा था कि ये दुर्भाग्य है कि उन्हे चुनाव के लिए अमर सिंह से पैसा लेना पड़ता था। अमर सिंह उवाच पहले यह था कि चुनाव में पैसों की जगह क्या समाजवादी किताबें भेजते। बाद में यह भी कह डाला कि मेरे भेजे पैसे चाहें तो मोहन सिंह वापस कर दें। इन बयानों के बीच पार्टी प्रमुख मुलायम सिंह ने अमर सिंह का इस्तीफा अस्वीकार कर दिया है, और उन्हे अपने गांव सैफई आने का निमंत्रण भी दिया है। अमर सिंह को जानने वाले दावे के साथ कह सकते हैं कि वे बड़े भाई का निमंत्रण अस्वीकार नहीं कर सकते। देखना है कि पार्टी के लिए पैसों और फिल्मी चकाचौंध पर समाजवादी नजरिया अब क्या कहता है। नेताओं की नाराजगी और उन्हें मनाने का सार्वजनिक अध्याय आज समाजवादी पार्टी में ही शुरू हुआ है। इस पर बिना कुछ और कहे पढ़ने वालों पर ही छोड़ दिया जाय कि इस पूरे प्रकरण के पीछे क्या क्या मुद्दे हैं।

Sunday 27 December, 2009

ऐसा जीवन और ये विदाई!


पंडित नारायण दत्त तिवारी का नाम लेते ही अब देश की एक संवैधानिक पीठ के कंलकित होने का दृश्य सामने उभर आया करेगा। तिवारी जी पर लगे सेक्स स्कैंडल के आरोप सिद्ध नहीं हैं। फिर भी इस चर्चा मात्र से राष्ट्रीय आजादी के लिए समर्पित सिपाही और देश के नव निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान करने वाले कर्मठ नेता के उपर वे दृश्य भारी साबित होंगे,जब आंध्र राजभवन के बाहर बड़ी संख्या में महिलाएं उन्हे कोसती हुई नारे लगा रही थीं। सार्वजनिक जीवन, खासकर राजनेताओं पर तरह-तरह के आरोप अब आम हो चले हैं। तिवारी जी और उन पर लगे आरोप दोनों आम नहीं हैं। वे प्रजा सोशलिस्ट पार्टी और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की परंपरा वाले कार्यकर्ता रहे हैं। इसी लिए जब केंद्र सरकार ने टी वी चैनलों पर उनके बारे में चल रही खबरों पर राज्य की सरकार से रिपोर्ट मांगी तो वे उसका मंतव्य समझ गये। उन्होंने समय रहते इस्तीफा दे दिया। फिर भी यह दुखद प्रसंग उनके जीवन के साथ जुड़ा रहेगा। जिस नारायण दत्त तिवारी का नाम इलाहाबाद वि·ाविद्यालय छात्र संघ भवन के लिए गर्व और गौरव का विषय हुआ करता है,उस भवन में भाषण करते छात्र नेता अब शायद उनकी परंपरा से जुड़ना पसंद न करें। संभव है कि लखनऊ की गलियों में तिवारी जी की चर्चा करने में लोग शर्म का अनुभव करें, क्योंकि अविभाज्य उत्तर प्रदेश ने उन्हें हमेशा सम्मान की नजर से देखा है। उत्तराखंड के लोगों का सिर तो इससे झुक ही गया है। शर्म और हया की चर्चा आम लोगों के लिए है, उन लोगों के लिए जिन्होंने तिवारी जी को स्वतंत्रता सेनानी.कुशल प्रशासक और जनप्रिय राजनेता के रूप मे देखा है। तिवारी की जनप्रियता ही थी कि उनसे सत्ता के आकांक्षी नेता इसलिए घबराते थे कि वे लोकतंत्र की सबसे बड़ी कुर्सी तक न पहुंच जायं। समय ने ऐसा नहीं होने दिया, और जब वे उम्र के आखिरी पड़ाव पर हैं, इस सार्वजनिक जीवन से उनकी ऐसी विदाई अच्छी नहीं लगती। फिर भी सवाल बना रहेगा कि सेक्स स्कैंडल के आरोप तिवारी जी पर ही क्यों लगते रहे? क्या व्यक्तिगत कमजोरी के वे शिकार हो गये थे? यदि ऐसा है तो सार्वजनिक छवियों के बारे में बनती बिगड़ती धारणाएं एक निश्चित आकार नहीं ले पाएंगी। स्वतंत्रता आंदोलन के बाद वे सुख सुविधाओं के आदी हो चले थे, स्वास्थ्य कारणों से सड़कों की धूल भी उन्हें परेशान करती थी। इसके बावजूद ये सच है कि सुविधाभोगी तिवारी जी पर सुविधा के लिए आर्थिक गड़बड़ियोंका आरोप कभी नहीं लगा। वे लालबहादुर शास्त्री नहीं बन पाये, पर उनकी तरह मिट्टी से जुड़े जरूर रहे। वे नेहरू नहीं हो सके, पर देश के लिए नेहरू की दृष्टि हमेशा उनकेपास रही। काश उनके पिछले कुछ वर्षों को भी इसी रूप में देखने का अवसर मिला होता।

Friday 25 December, 2009

वाह गुरू!



इलाहाबाद में कुछ "गुरू' लोग हुआ करते हैं। गुरु नहीं "गुरू'लोग। ऐसा लिखते समय मैं उन गुरुओं की बात नहीं करता, जो अब इस धरती पर नहीं हैं। ऐसे गुरुओं में छुन्नन गुरू भी हुआ करते थे। प्रखर समाजवादी छुन्नन गुरू। उनके बारे में कहा जाता था-""हाथ में सोंटा, मुख में पान, छुन्नन गुरू की ये पहचान।'' यह भी कि छुन्नन गुरू ने जनता के किसी सवाल पर अपना सोंटा किसी अधिकारी के टेबल पर रख दिया तो, वह तभी उठेगा जब समस्या का समाधान हो जाय। छुन्नन गुरू की याद झारखंड के "गुरू जी'के संदर्भ में इसलिए आती है कि वे भी जन नेता रहे हैं। झारखंड के निर्माण में उनके योगदान को भुलाया नहीं जा सकता, उससे भी ज्यादा आदिवासियों की लड़ाई में उनकी भागीदारी को। जल, जंगल और जमीन पर वहां के रहने वाले लोगों की ही मिल्कीयत हो, यह मुद्दा रहा है गुरू जी का। इसीलिए वे झारखंड, खासकर आदिवासी क्षेत्र में आदर के पात्र हैं। गुरू जी की उपाधि भी उनके किसी एक अथवा कुछ शिष्यों ने नहीं दी है। यह सम्मान उनके लाखों लाख अनुयायियों का दिया हुआ है, जिसे मीडिया ने इधर खूब प्रचारित किया। झारखंड विधान सभा के चुनाव परिणाम आये, तो किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलने के बावजूद एक बात तय दिखी। वह यह कि गुरू जी की गुरुता कायम है, वे ही सबसे बड़े नेता हैं। उनके दल झारखंड मुक्ति मोर्चा को मिली सीटों के आधार पर तय हो गया कि वे गुरु ही नहीं हैं, अब "राजगुरु' भी बन सकते हैं। पर गुरू जी को इतने पर संतोष नहीं है। राजगुरु तो राजतिलक करता है, फिर राजा को राज चलाने का मंत्र भी दिया करता है। गुरू जी खुद राजा बनने से कम पर तैयार नहीं हैं। उन्हें गंवारा नहीं है कि आदिवासी राज्य के लिए लड़ने के बाद बने राज्य में राज करने के सुख से वंचित रह जायं। फिर राज परिवार की एक परंपरा भी होती है। लिहाजा वे यह भी तय कर लेना चाहते हैं कि उनके सिंहासन खाली करने पर उनका सुपुत्र ही उस पर विराजमान हो। इसीलिए चुनाव परिणाम आने के दूसरे दिन उन्होंने सरकार में अपने लिए सीएम और अपने बेटे के लिए डिप्टी सीएम बनने की शर्त रख दी है। देखना है कि इसे बीजेपी स्वीकारती है, अथवा कांग्रेस। फिलहाल तो गुरू जी "गुरू' ही निकले। उनहें कांग्रेसी नेता सुबोधकांत सहाय के यह याद दिलाने पर कोई मलाल नहीं है कि वे दो बार सीएम पद के लिए अयोग्य करार दिए गये हैं। सहाय का इशारा मुख्यमंत्री बने शीबू सोरेन पर भ्रष्टाचार का आरोप लगने, और दूसरी बार सीएम के रूप में उपचुनाव हार जाने की ओर है। जो भी हो जोड़तोड़ की राजनीति में जो ज्यादा जरूरी होता है, महत्व उसी का ज्यादा होता है। फिर झारखंड में तो निर्दलीय मधु कोड़ा का भी बड़ी पार्टी कांग्रेस के समर्थन से मुख्यमंत्री बनने का उदाहरण है। उस कोड़ा का, जो करीब चार हजार करोड़ रुपये की अघोषित संपत्ति रखने के आरोप में जेल में हैं। जेल गुरू जी भी हो आये हैं। आदिवासियों का दर्द दूर करने की लड़ाई में, और झारखंड निर्माण के संघर्ष में भी। फिर वे हत्या, हत्या की कोशिश और घोटालों के आरोप में भी जेल जा चुके हैं। यह अलग बात है कि अभी तक इन आरोपों में से कोई सिद्ध नहीं हो सका है। गुरू जी यह मानने वालों में शामिल हैं कि जब तक आरोप सिद्ध नहीं होते, आरोपी कसूरवार नहीं होता। उन्हे इससे क्या मतलब कि जब तक आरोप गलत न ठहरा दिए जायं, कोई व्यक्ति शंकाओं से परे नहीं हो जाता। फिर उन्होंने यह तो सोचना भी गंवारा नहीं किया होगा कि ऐसे व्यक्ति को सार्वजनिक पदों से दूर रहना चाहिए। आखिर वे "गुरू' जो हैं। ऐसे "गुरू' जो सम्मान के पात्र भी होते हैं, अपने "फन' के माहिर भी होते हैं। गुरू जी को अपने समर्थकों में खूब सम्मान मिलता है। वे अपने फन के माहिर किस हद तक हैं,यह भी समय-समय पर सामने आता रहता है। अभी तो बस यही कहने का मन करता है-वाह गुरू!