Wednesday, 16 December 2009

इस हंगामे को शुभकामना

देर से ही सही, संसद में सभी विपक्षी दल किसी जनहित के मुद्दे पर एकजुट हुए हैं। यह एकजुटता संसद के बाहर मीडिया के सामने भी दिखी। हम उम्मीद करें कि इसे बरकरार रखा जा सकेगा। संसद में हंगामा और संसद के बाहर हंगामा, इस हंगामे के लिए शुभकामना जताने का कारण है महंगाई से खुद का जूझना। खुद का जिक्र इसलिए कि मैं भी उन करोड़ों लोगों में से आता हूं, जो हर कीमत पर खाने की हर जरूरी चीज नहीं ले सकता। सच्चाई यह है कि इन करोड़ों लोगों को सस्ते गल्ले की दुकानों तक जाने की भी इजाजत नहीं है। ये लोग गरीबी रेखा के नीचे नहीं आते। यानि बात उस मध्य वर्ग की कही जा रही है, जो महंगाई से सबसे अधिक परेशान है। ऐसा नहीं है कि हमारे देश की सबसे बड़ी पंचायत में पहली बार महंगाई की चिंता की गई है। लोकसभा के पिछले चुनाव से ही यह मसला गरम था, पर अमेरिका के साथ परमाणु समझौता सरकार की प्राथमिकता थी, तो विपक्ष को भी लगता था कि ये समझोता हुआ तो देश अमेरिका के हाथों बिक जायेगा। बहरहाल अमेरिका के साथ हुआ समझौता जब रूस तक पहुंचा तो विपक्ष, यहां तक कि कामरेड्स को भी अहसास नहीं रहा कि यह समझौता अमेरिकी संधि से भी बड़ा है। डॉक्टर मनमोहन सिंह सरकार की इस बात के लिए सराहना की जानी चाहिए कि देश की आणविक जरूरतों को ध्यान मे रखते हुए उसने कूटनीतिक तरीके से दुनिया की दो बड़ी शक्तियों से बहुत कुछ हासिल कर लिया है। यह विस्तार फ्रांस और दूसरे देशों तक भी जाता है। भविष्य में देश इन समझौतों के जरिए बिजली और आणविक ऊर्जा के गैर सामरिक कार्य कर सकेगा। फिर भी इससे मुंह नहीं मोड़ा जा सकता कि लोगों की रोज की जरूरतें उन्हें भविष्य के सुहाने सपने देखने नहीं दो रही है। हम आम तौर अपना हाल बताने के लिए कह दिया करते है कि दाल- रोटी चल रही है। हालात ये हैं कि देश के दिल दिल्ली तक में लोगों की दाल गल नहीं पा रही है। मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने सचिवालय के बाहर और दिल्ली के दूसरे क्षेत्रों में पहले दाल और बाद में आटा बिकवाया। इलेक्ट्रानिक चैनलों पर शीला जी की दाल खरीदते अथवा बेचते तस्वीर दिखी, और अब तस्वीर की तरह दुकानों से सस्ती-दाल और आटा गायब है। दुकानदार कहते हैं कि सप्लाई नहीं आई, मुख्यमंत्री भी कहती हैं कि अनाज दिल्ली में तो है नहीं, कभी-कभी सप्लाई लाइन डिस्टर्व हो जाया करती है। माना कि महंगाई पर अपनी चिंता दर्शाने के लिए कांग्रेस के कुंवर ने इकोनामी क्लास में यात्रा शुरू की, यह भी कि वे ट्रेनों में भी चले, मंत्रीगण भी इसके लिए बाध्य हुए। सत्ता पक्ष को सदस्यों को पहले ही एक महीने का वेतन प्रधानमंत्री के आपदा कोष में देने को कहा गया था। फिर भी महंगाई सुरसा का मुंह हो गई है। उसमें घुस कर सुरसा को पराजित करने वाला कोई हनुमान ही हो सकता है।
आखिर महंगाई पर नियंत्रण क्यों नहीं हो रहा? दिल्ली में बैठी शीला जी के बयान के ठीक उलट केंद्र और राज्यों के खाद्यान्न मंत्रियों का दावा काफी हद तक सच है कि देश के खाद्य भंडार भरे हुए हैं। फिर सवाल लाजिमी है कि इस खाद्यान्न को सुचारू तरीके से बाहर निकाला क्यों नहीं जा रहा? "सुचारु' शब्द पर जोर देना आवश्यक इसलिए कि लोचा यहीं है। हम बचपन से सुनते आ रहे हैं कि हर आम चुनाव के बाद महंगाई कुछ कदम का फासला तय कर लेती है। इस कथन के पीछे भाव यही है कि चुनावों में औद्योगिक घरानों से लिया गया चंदा सरकारी कोड़े को नरम कर देता है। क्या यही बात फिर से कहने का अवसर नहीं है? खाद्यान्न बाजारों तक पहुंचते पहुंचते इतना अधिक महंगा कैसे हो जाता है? किसानों को उनकी उपज का सही मूल्य नहीं मिलता। खाद, पानी, बिजली महंगी होती जा रही है। उधर खेती की उपज पहले के मुकाबले पर्याप्त कीमत नहीं दे रही। सवाल केवल खाद्यान्न का ही नहीं है। अपना अनाज सस्ता बेचकर जरूरत की बाकी जींस सस्ती खरीदनी पड़ती है। अब जब कि संसद में विपक्ष एकजुट दिख रहा है, उम्मीद की जानी चाहिए कि किसानों को गन्ना मूल्य पर दिल्ली मार्च कराने की तरह महंगाई पर भी उन्हें लामबंद किया जायेगा। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गन्ना किसान अपनी उपज के अधिक मूल्य के लिए दिल्ली में जमे तो अजित सिंह के साथ मुलायम सिंह और राजनाथ सिंह भी आ गये थे। संसद में महंगाई पर हंगामा हुआ है तो मुलायम सिंह आंदोलन की हुंकार भरने में देर नहीं कर रहे हैं। ध्यान रखना होगा कि महंगाई पर जिलों में जेल भरने का सिलसिला पार्टियां पहले भी चलाती रही हैं। जरूरत यह है कि संपर्ण विफक्ष इस सवाल पर एक साथ बैठकर सोचे। और विपक्ष ही क्यों, तेलंगाना अथवा संयुक्त आंध्र के सवाल पर कांग्रेसी सांसद भी अपनी पार्टियों की परिधि तोड़ सकते हैं , फिर यह तो उस जनता से जुड़ा मसला है जो संसद और सांसदों का भविष्य तय करती है।

1 comment:

राजन अग्रवाल said...

lekin ye jo mamla hai, har baar gadhe ke sir se sig type gayab kyo ho jata hai????