Wednesday 26 January, 2011

जल्दी आयें कोर्ट से फैसले

लंबे समय बाद भुवन वेणु ने कुछ लिखने को प्रेरित किया है। लूज शंटिंग पर भुवन वेणु, डॉक्टर तलवार पर उत्सव शर्मा के हमले के बहाने कानून व्यवस्था पर कुछ सवाल खड़े कर रहे हैं। भुवन इसके साथ ही रुचिका गिरोत्रा मामले और बिहार के विधायक की हत्या पर भी चर्चा कर रहे हैं। उनकी चिंता जायज है। यह देखना होगा कि आतंकी मामलों में सुनवाई के लिए जेलों में स्पेशल कोर्ट लगती रही हैं। सीबीआई की ओर से किये जांच के मामलों को सुनने के लिए भी बड़ी संख्या में अदालतें बनाई गई हैं। निश्चित तौर पर इन कोट्र्स में मामले नियमित अदालतों की अपेक्षा जल्दी निपटाये जा रहे हैं। तय है कि इस तरह के विकल्प का रास्ता सामने है। जरूरत है उस पर चलने की इच्छा शक्ति की। फिर सोचना होगा कि हमारी सरकार और उसका कानून मंत्रालय इस रास्ते पर क्यों नहीं चल रहा? आखिर विशेष अदालतें भी तो हमारी सरकार और कानून मंत्रालय ने ही बनाई हैं। एक और आम हो चला उदाहरण भी हमारे सामने है। कई राज्यों में जनता अदालत लगाकर कुछ मसले हल किये जा रहे हैं। जनता अदालतों के सामने भूमि विवाद अथवा ऐसे ही मसले रखे जाते हैं, जिनमें दोनों पक्ष अथवा संबंधित पक्षों को सामने बैठाकर समझौता कराया जा सके। अपराध के भी ढेर सारे मुकदमे ऐसे होते हैं, जो मामूली झगड़ों के होते हैं। पर जिला न्यायालयों में मुंसिफ मजिस्ट्रेट के सामने और फिर, एक एक कर आगे बढ़ता हुआ मुकदमा सरकारी खर्च पर आघात तो करता ही है, झगड़े के दर्द से अधिक, विवाद वाली पार्टियों को आर्थिक तकलीफें भी देता रहता है। कानूनी व्यवस्थापकों को देखना होगा कि ये छोटे मसले निपटाने की समय सीमा तय कर दी जाय। भुवन ने मसला उठाया है आरुषि हत्या और रुचिका गिरोत्रा की मौत पर। फिर बिहार के विधायक राजकिशोर केसरी की हत्या का मामला भी उनकी चर्चा में है। कई आपराधिक मामलों में आरोपी दिखाई देते हैं। पर हम फैसला सिर्फ इस आधार पर नहीं कर देते कि कुछ लोग अपराधी लग रहे होते हैं। यदि अपराधी होने के संकेत भर से फैसला होने लगा तो हम फिर से आदिम समाज में नहीं चले जायेंगे? उस आदिम समाज में जहां बाद के बने हथियार भी नहीं थे। पत्थरों और लकड़ियों को ही हथियार बना लिया जाता था। मैं नहीं कहता कि रुचिका गिरोत्रा मामले में अपराधी साबित हो चुका पुलिस अफसर राठौड़ निर्दोष है। यह भी नहीं कहता कि आरुषि मामले में उसके पेरेंट्स पर करोड़ों लोगों का शक ठीक नहीं है। पर दोनों मामलों में न्याय प्रक्रिया अभी जारी है। हम एक संवैधानिक व्यवस्था के हिस्सा हैं, न कि उस आदिम समाज के जिसमें जब चाहे पत्थर अथवा लकड़ी का टुकड़ा उठाकर किसी पर भी वार कर दिया जाय। साफ है कि उत्सव शर्मा ने राठैड़ और डॉक्टर तलवार पर हमला कर देश की संवैधानिक व्यवस्था को चुनौती दे डाली है। बहस आगे भी होगी कि व्यवस्था को ठीक करने के क्या क्या तरीके हो सकते हैं। पर एक सभ्य समाज में हमला तो कोई समाधान नहीं हुआ ना? हां लोगों का गुस्सा बढ़ने लगे तो उसके कारणों पर चर्चा की जा सकती है। आरुषि और रुचिका के मामले पर किसी की हिंसात्मक प्रतिक्रिया सशस्त्र क्रांति तो नहीं है, यह बात आप सहित संभवतः कई गंभीर विचारक भी मान लेंगे। साथ ही किसी आपराधिक मामले में आरोपियों का दोष तय करने में देर लगे, इसमें यह कहने में संकोच नहीं है कि यह कानूनी प्रक्रिया की विसंगति है। फिर यही कहना होगा कि जनता अदालतें, फास्ट ट्रैक कोर्ट और स्पेशल कोर्ट बनाने वाले नियामक इस पर भी सोचें कि मुद्दे इन कोट्र्स की सीमा से बहुत आगे निकले हुए हैं। ऐसे फास्ट कोर्ट अधिक से अधिक बनें। उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय मुकदमों की सुनाई जल्दी पूरी किया करें। फिर न्यायालयों पर जिम्मेदारी डालने के साथ एक बात और। न्यायलयों में जजों की सीटें खाली रहेंगी तो फैसले जल्दी कैसे होंगे? आम लोग और वकील हाईकोर्ट के बेंच बनाने की मांग करते हैं, तो इसमें गलत क्या है? क्या ज्यादा से ज्यादा कोर्ट और जज बैठाकर न्याय में हो रही देरी पर लोगों का गुस्सा शांत नहीं किया जा सकता?