Saturday 28 November, 2009
शुभ हो......
स्मिता ठाकरे ने बगावत कर दी है। वे शिव सेना से अलग होकर कांग्रेस में जाने की तैयारी कर रही हैं। यहां आकर उनकी बगावत राज ठाकरे की बगावत से अलग हो जाती है। करीब तीन साल पहले राज ठाकरे ने अपने चाचा और शिवसेना प्रमुख बाला साहेब ठाकरे से अलग होकर महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (एमएनएस) का गठन किया था। स्मिता ठाकुर भी ठाकरे परिवार की बहू हैं। वे इस मामले में राज से भी अधिक बालासाहेब की करीब हैं कि वे बाला साहब के बड़े बेटे जयदेव की पत्नी हैं। जयदेव ठाकरे ने पहले ही बालासाहेब के निवास "मातोश्री' से अपने को अलग कर लिया था। तब स्मिता ने "मातोश्री' में ही रहने का फैसला किया। वे बाद में जुहू के अपने बंगले में गई थीं। यानि कि पारिवारिक विवाद के बावजूद वह शिवसेना से कुछ उम्मीद कर रही थीं। राज ठाकरे की तरह उनकी उम्मीदें भी अधूरी रह गर्इं तो उन्होंने शिवसेना को बॉय- बॉय बोलने का फैसला कर लिया है। यहां आपको लग सकता है कि राज और स्मिता, दोनों की अधूरी महत्वाकांक्षा ने ही उन्हें बगावत के लिए प्रेरित किया। यह काफी हद तक सच है। इसके बावजूद शुभ यह है कि स्मिता पूरे देश की जगह सिर्फ महाराष्ट्र की चिंता नहीं कर रही हैं। शायद मराठा मानुस का नारा लगाने के लिए उन्हें भी एक सेना बनानी पड़ती। उन्हें भी ये कहना पड़ता कि मराठियों का हक उत्तरी भारत, और उनमें भी सबसे अधिक बिहारी ले जा रहे हैं। यह कहना आसान था,पर इस मानसिकता के साथ होने के लिए कुछ और कर गुजरने का साहस (दुस्साहस कहना ज्यादा ठीक होगा) करना पड़ता। क्या ऐसा दुस्साहस ठाकरे परिवार की एक और सदस्य नहीं कर सकती थी। जवाब के लिए बहुत परेशान नहीं होना है। मराठा मानसिकता के नाम पर किसी उत्तरी भारतीय समुदाय पर हमला, अथवा कथित रूप से मराठा मानसिकता के खिलाफ काम करने वाली मीडिया को निशाना बनाना उनके लोगों के लिए भी मुश्किल काम नहीं था। आखिर इस काम के लिए मुट्ठी भर भीड़ ही तो चाहिए। यह भीड़ कम से कम मुंबई में नामुमकिन तो नहीं है। ऐसा नहीं कर उन्होंने सोनिया गांधी और राहुल गांधी से प्रेरित होने की बात स्वीकारी है। यह शुभ इस अर्थ में नहीं है कि वे शिवसेना छोड़कर कांग्रेस में जा रही हैं। सच्चाई ये है कि स्मिता एक कट्टर क्षेत्रीय और काफी हद तक संकुचित दायरे में काम करने वालों का साथ छोड़ रही हैं। शिवसेना अथवा मनसे का संकुचन देशहित से उपर मराठा हित को रखता है। अड़तालीस साल की फिल्म निर्माता स्मिता पाटिल को ये समझ चाहें जैसे भी आई हो, इस समय विवाद का कोई कारण नहीं होना चाहिए। मैं मानता हूं कि उनकी पसंद कोई और पार्टी भी हो सकती थी। शायद कांग्रेस को पसंद करने का कारण केंद्र और महाराष्ट्र में उसका सत्तासीन होना ही है। कांग्रेस तत्काल भले न करे, कुछ दिनों बाद किसी सदन का सदस्य बनने की स्मिता की इच्छा पूरी हो सकती है। फिर भी क्या क्षेत्रीयता को देशहित से उपर रखने वालों को उन्ही के परिवार से बगावत का स्वागत नहीं होना चाहिए?
Wednesday 25 November, 2009
आत्म परिचय
सर्वोच्च सदनों में बैठे हमारे प्रतिनिधि जब भी निराश करते हुए से लगते हैं, मन व्यथित हो उठता है। पिछले दो दिनों से अयोध्या विवाद जैसे मसले पर सांसदों ने जिस गैर जिम्मेदारी का परिचय दिया है, और कुछ कहने की जगह एक बार फिर जेहन में उभर आई अपनी कुछ पंक्तियां ही प्रस्तुत कर रहा हूं.......
मैं कौन हूं, क्या हूं, पता है दुनिया को
मैं इक्कीसवीं सदी के भारतीय का प्रतिरूप
जिसे अपने दुःखों का बोध तो है
पर अंतर में दिवा स्वप्न पालता है।
उसी की आस में बैठा
उसी के चिंतन में अपना मस्तिष्क सालता है।
पर मेरा अपना गौरवमयी इतिहास भी है
मैं वंशज हूं श्रद्धा और मनु का
अंश हूं कर्तव्य के उन धुनी का।
मेरा यह शरीर मात्र अस्थि पंजर नहीं
इसमें दधीचि की हड्डियों का अंश है
जिससे देवराज ने बनाई प्रत्यंचा
असुरों का किया संहार
सृष्टि को भयमुक्त बनाया।
और वर्तमान मेंमैं अग्नि राख में पड़ा
अनबुझा एक तिनका
चाहे पैरों तले रौंद डालो
अपनी धरा में विलीन हो जाऊंगा
या बगल के कूड़े पर फेंक दो
उसे धरा में विलीन कर दूंगा।
तो मुझे मेरा भूत या वर्तमान, कुछ भी कह लो
पर मुझे आज का राजनीतिज्ञ न कहना
जो सुबह को और, शाम को कुछ और
कहने के और, करने को कुछ और।
इसलिए कहता हूं
कि मुझे मेरा भूत या वर्तमान, कुछ भी कह लो
पर मुझे आज का राजनीतिज्ञ न कहना।
Monday 23 November, 2009
बंद करें मंदिर-मस्जिद का खेल
जस्टिस मनमोहन सिंह लिब्रााहन आयोग की रिपोर्ट का इंतजार देश में बड़ी संख्या में लोगों को था। सरकार संसद में यह रिपोर्ट और उस पर एक्शन टेकेन रिपोर्ट रखती, उसके पहले ही आयोग की रिपोर्ट लीक होने से इसका इंतजार कर रहे लोग सहम गये होंगे। इस कथन में यदि आपको दम नहीं लग रहा हो, तो रिपोर्ट लीक होने के दिन ही लोकसभा की कार्यवाही पर नजर डालें। वहां बीजेपी और समाजवादी पार्टी, दोनों ने लिब्रााहन आयोग की रिपोर्ट संसद के पटल पर रखने की मांग की। बीजेपी के नेता (और लोकसभा में प्रतिपक्ष के भी नेता) लालकृष्ण आडवाणी तो इसे उसी दिन सदन में प्रस्तुत करने की मांग कर रहे थे। गृहमंत्री के इस बयान से भी बीजेपी संतुष्ट नहीं हुई कि सरकार संसद के चालू सत्र में ही रिपोर्ट पटल पर रख देगी। अब सवाल उठता है कि बीजेपी जल्दी में क्यों है। खुद आडवाणी ने लोकसभा के प्रश्नोत्तर काल में ही रिपोर्ट के सत्रह साल बाद आने के बावजूद नवबंर से उसे रोके जाने पर चिंता व्यक्त की। अब आडवाणी उसी रिपोर्ट का और कुछ दिन इंतजार करने के मूड में नहीं हैं। आडवाणी की जल्दी को समझने के लिए उनके रिपोर्ट लीक होने के दिन लोकसभा वाले भाषण से बाहर जाने की जरूरत नहीं है। वे कहते हैं कि अयोध्या में राम जन्मभूमि आंदोलन से जुड़े होने पर वे अपने को गौरवान्वित महसूस करते हैं। गर्व समाजवादी पार्टी के सांसद और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव को भी है, और अपने उस गर्व का इजहार उन्होंने भी लोकसभा में ही कर दिया। आडवाणी के बाद जब मुलायम सिंह बोलने के लिए खड़े हुए तो वे इस बात को लेकर गौरवान्वित थे कि मस्जिद गिराने की कोशिश करने वालों के खिलाफ उन्होंने कठोर कारर्वाई की थी। उन्होंने तो यहां तक कहा कि न चाहते हुए भी उन्होंने यहां तक एक्शन लिया कि कुछ लोगों को जान भी देनी पड़ी। बात साफ है कि दोनों अपने गर्व को फिर से व्यक्त करने का सुअवसर देख रहे हैं, और इसमें दोनों के लिए लिब्रााहन आयोग की रिपोर्ट संजीवनी का काम कर सकती है।
लोकसभा की कार्यवाही का दोनों पक्षों ने अपनी पुरानी इच्छा दुहराने में भी प्रयोग कर लिया। आडवाणी ने कहा कि मेरे जीवन की यह अभिलाषा है कि अयोध्या में एक भव्य राम जन्मभूमि बने। वे साफ कर देते हैं कि अभी वहां जो मंदिर है, वह राम जन्मभूमि की गरिमा के अनुकूल नहीं है। साफ है कि आडवाणी अयोध्या के उस विवादित स्थल पर ही राम मंदिर बनाना चाहते हैं, जहां मस्जिद गिराई गई थी, और जहां टेंट के बीच अद्र्धनिर्मित सा मंदिर है। उनकी यह इच्छा नई नहीं है। अब इस इच्छा के कुलांचे भरने का कारण शायद यह है कि उन्हे रिटायर करने की बात संघ परिवार में चल रही है। संघ परिवार को अपने पक्ष में करने का भी आडवाणी के लिए यह अच्छा मौका है। वे यह जताना चाहते हैं कि जिस राम जन्मभूमि के लिए उन्होंने रथयात्रा की, और जिस यात्रा से पार्टी में नई जान आ गई थी,उस ताजगी को फिर से वापस लाने का काम भी वही कर सकते हैं। इतिहास उनके पक्ष में खड़ा है कि राम जन्मभूमि आंदोलन ने हिंदू लहर पैदा कर दी थी। उस लहर का लाभ भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में अगले लोकसभा चुनाव परिणाम ने दिया था। बीजेपी बड़ी पार्टी बनकर उभरी, और बाद में भी उसकी सरकार बनी। ये अलग बात है कि पूर्ण बहुमत नहीं होने के कारण उसे दूसरे दलों का भी सहयोग लेना पड़ा, और हिंदू कट्टरता में अपेक्षाकृत उदार होने के कारण अटल बिहारी वाजपेयी बाजी मार ले गये। अब जबकि आडवाणी को पार्टी ने नेता के रूप में सामने किया तो कई कारणों से पिछड़ गये। पिछले लोकसभा चुनाव में आडवाणी के पिछड़ने के कारणों पर चर्चा बहुत हो चुकी है। फिर भी जरूरत होने पर यह अलग मुद्दा है। अहम बिंदु यह है कि आडवाणी की सोई इच्छा एक बार फिर जाग उठी है।
आप सवाल कर सकते हैं कि आडवाणी के साथ मुलायम सिंह यादव भी लिब्रााहन आयोग की रिपोर्ट जल्दी से जल्दी संसद में रखे जाने के हिमायती क्यों हैं। मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी को लोकसभा चुनाव में लगा झटका धीरे का भले हो, उपचुनाव आते आते उन्हे झटका खाते हुए साफ तौर पर देखा गया। फिर तो उन्होंने उन कल्याण सिंह से भी दोस्ती तोड़ ली, जिन्हें बीजेपी के नाश के लिए वे साथ लाये थे। दरअसल उन्हें अहसास हो चला था कि लिब्रााहन आयोग की रिपोर्ट आते आते कल्याण सिंह भी मुस्लिम विरोधी छवि के लिए एक बार फिर सामने होंगे। ऐसे में मुसलमान मतदाताओं को अब और नाराज करना समाजवादी पार्टी की सेहत के लिए सही नहीं होगा। साफ है कि आडवाणी की तरह मुलायम को भी लिब्रााहन आयोग की रिपोर्ट में ही अपने दल और खुद की राजनीति की संजीवनी दिख रही है। नहीं भूलना चाहिए कि ये राजनेता अपनी संजीवनी हासिल करना चाहते हैं। भले ही इस काम में देश के सामने महा संकट खड़ा हो जाय। लिब्रााहन आयोग का गठन संविधान सम्मत था। उसकी रिपोर्ट आए, उस पर कार्यवाही भी हो, पर इस तरह हंगामा खड़ा न किया जाय तो बेहतर होगा। संविधान और देश के कानून को शांति पूर्वक काम करने दिया जाना चाहिए। सवाल है कि क्या इस प्रक्रिया का उपयोग एक बार फिर मंदिर- मस्जिद के खेल में किया जायेगा? क्या फिर छह दिसंबर और उसके बाद की देशव्यापी हिंसा को बुलावा देना ठीक होगा? कम से कम आडवाणी और मुलायम का ताजा रुख तो ऐसा ही करता हुआ लगता है।
Thursday 19 November, 2009
Wednesday 18 November, 2009
इन किसानों की भी तो सुनो.........
मेरे गृह जनपद बलिया में मेरा घर ब्लॉक और तहसील मुख्यालय बांसडीह में है। तब मैं छोटा था। कई दूसरे लोगों की तरह तब के खंड विकास अधिकारी (बी. डी. ओ.) भी मेरे घर आया जाया करते थे। उन्होंने गेंहू के नये आये कुछ बीज दिए। इसलिए कि उन्हे हमारी पारिवारिक खेती के जमीन में उगाया जाय। पंतनगर से आये बीज को खेतों में बोया गया। बगल से गुजरती नहर के अलावा उस खेत के कोने में कुंआ भी है। बी डी ओ साहब की राय के अनुसार समय पर पानी, ऊर्वरक और कीटनाशक डाले जाते रहे। इतनी देखरेख के बाद खेती बेहतर होनी ही थी। हमारा वह खेत आसपास की खेती को मुंह चिढ़ा रहा था। लगा, जैसे हम विशिष्ट किसान परिवार हो गये हों (यह अलग बात है कि तब और आज भी हमारे घर की खेती दूसरों को आधी फसल की शर्त पर दी जाती है)। बहरहाल, यह संदर्भ याद आने की वजह संसद के शीतकालीन सत्र के पहले दिन दिल्ली में गन्ना किसानों का प्रदर्शन है। यह कहने में कोई संकोच नहीं कि ये किसान पश्चिमी उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के उन क्षेत्रों के हैं, जो उन्नत खेती के लिए पहचाने जाते हैं। वे उन्नीस नवंबर को लाखों की संख्या में दिल्ली इसलिए पहुंचे कि गन्ने का मूल्य बढ़ाने के लिए सरकार पर दबाव डाल सकें। बात खेती और सरकार के बीच की है। इसलिए विपक्ष भी इस मामले में पीछे क्यों रहे। दो प्रमुख राजनेता, किसान यूनियन के नेता महेंद्र सिंह टिकैत के साथ खड़े हो गये हैं। टिकैत बड़ा किसान आंदोलन शुरू करने के बावजूद कभी राजनेता नहीं बन सके। उनकी बोई फसल चौधरी अजीत सिंह के साथ पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव काटते रहे हैं। वे भी इन गन्ना किसानों के प्रबल हिमायती बन खड़े हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि महंगाई के साथ खेती में लागत भी बेतहाशा बढ़ी है। किसानों को लगता है कि लागत के मुकाबले उन्हें बाजार से काफी कम मिलता है। फिर चीनी की आसमान छूती कीमत भी उन्हें प्रेरित करती है कि जिस गन्ने से चीनी बनती है, उसका मूल्य भी तो बढ़ना ही चाहिए। किसानों की उनकी मांग पर कोई एतराज भला किसको हो सकता है। इसके बावजूद राजनेताओं के सामने कुछ सवाल हैं। बात जहां से शुरू की थी, वहीं चलते हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश में जहां मेरा गृह जनपद है, गन्ना भी उगाया जाता है। इसलिए रसड़ा के साथ सीमावर्ती जिलों में भी चीनी मिलें हैं। फिर भी गन्ने के मुकाबले दूसरी फसलें वहां ज्यादा होती हैं। शायद इसलिए कि गन्ने के लिए सिंचाई की बेहतर व्यवस्था और उसकी रखवाली इस क्षेत्र के किसानों के लिए भारी पड़ता है। नदियों के किनारे जब बाढ़ से बचे हों, और नहरों की सुविधा वाले क्षेत्र में धान की फसल होती है। प्रमुख रूप से धान के साथ यहां गेंहू भी पैदा होती है। इन दिनों पूर्वी उत्तर प्रदेश के खलिहान इसलिए भी देखने लायक हैं कि वहां खरीदारों की गाड़ियां लगी रहती हैं। आप को लग सकता है कि गन्ने की तरह यह मनी क्राप हो गई है, पर यह समझना भूल होगी। ऐसे किसान तो कम ही हैं, जो अपने यहां कम जगह होने से सारा धान रख नहीं पाते हों, और खलिहान से ही उसका बड़ा हिस्सा बेच देते हैं। जो दूसरे किसान धान बेचते हैं, उन्हें बाहर पढ़ने वाले अपने बच्चों को पैसा भेजना होता है, और उससे भी अधिक यह कि जाड़ा बढ़ते जाने से कई घरों में पहनने और ओढ़ने लायक गरम कपड़ों की जरूरत होती है। ऐसे में मजबूरी के मारे लोग खरीददारों की मनमानी पर धान बेच रहे हैं। यही हाल गेंहू के मामले में होता है, और आलू की फसल तो बिजली की कमी से कोल्ड स्टोरेज में भी सड़ जाती है। उनके यहां सरकार की तय की हुई दर का मामला नहीं बनता। गन्ना किसान तो हर साल सरकारी दर पर ही फसल बेचते हैं, और लड़ाई उस पर अध्यादेश को लेकर है। फिर जिस उत्तर प्रदेश में गन्ना और धान-गेंहू वाले किसान हैं, उसी में बुंदेलखंड का हिस्सा भी आता है, जहां से किसानों की आत्महत्या की खबरों से रू-ब-रू होना पड़ता है। वोट बैंक और क्षेत्र की सीमा पहचानने वाले राजनेताओं से महाराष्ट्र के किसानों की फरियाद कैसे की जाय? वहां के विदर्भ की हालत वि·ाव्यापी खबर बनती रही है। आज सिर्फ गन्ना पर संसद और सड़क, दोनों जगह आवाज उठाई जा रही है। क्या यह संभव नहीं है कि पूरे देश के किसानों की लड़ाई समवेत ढंग से लड़ी जाय? पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों के हक के लिए किसान यूनियन पहले से ही लगी है। महाराष्ट्र में मजदूर यूनियनों की तरह किसान संगठन बहुत मजबूत नहीं हुए। इधर जरूर कुछ जन संगठन खेती के मुद्दों पर आगे आये हैं। बुंदेल खंड की मद्धिम आवाज भी जब-तब सुनी जा रही है। पर क्या विदर्भ और बुंदेलखंड की असलियत को संसद और सड़क, दोनों जगह आने का हक नहीं है? ये हक उन क्षेत्रों को कौन दिलाएगा? क्या राजनेता नहीं? क्या अपने अपने क्षेत्र के किसानों की समस्याओं को वे एक साथ नहीं उठा सकते?
Monday 16 November, 2009
बाल गंगाधर तिलक की याद
महाराष्ट्र में मराठा मानुष के नाम पर जब छिछली राजनीति चल रही है, बाल गंगाधर तिलक को याद करना उचित होगा। सन् 1896 में गणोशोत्सव की शुरूआत कर उन्होंने तत्कालीन जनमानस को धर्म के सहारे सामाजिक समरसता से जोड़ने की कोशिश की थी। आज गणेशोत्सव महाराष्ट्र की सीमा लांघ कर देश के किन किन प्रांतों तक पहुंच गया, चर्चा का अलग विषय हो सकता है। कहना तो यह है कि आज उसी महाराष्ट्र में देश के पर प्रांतियों के खिलाफ जहर उगलने का दौर जारी है। शिव सेना मराठा स्वाभिमान को छत्रपति शिवाजी और भगवान शिव के त्रिशूल से आगे महाराष्ट्र बनाम संपूर्ण राष्ट्र तक ले जाने की कुत्सित कोशिश कर रही है। यह मसला इतना आसान नहीं है, जिस पर टिप्पणी मात्र के बाद आगे निकल लिया जाय। मुंबई में उत्तर भारतीयों पर हमले की घटनाओं से उभरा विवाद समुद्री सीमाओं पर छठ पूजा तक पहुंच गया था। यह उसी महाराष्ट्र की राजधानी में हुआ, जिस सूबे में तिलक महाराज ने गणोशोत्सव को राष्ट्र उत्सव से जोड़ा था। अंग्रेजी शासन के खिलाफ लड़ाई में गणोत्सव में एकत्र भारी भीड़ को राष्ट्रीय भावनाओं से ओत प्रोत किया जाता रहा। उसी धरती पर अब प्रांत से पहले देश की बात करने वालों को मराठा मानुष पर आघात करने वाला बताया जा रहा है। ठीक है कि सचिन तेंदुलकर पर बाला साहेब ठाकरे की कटु संपादकीय पर शिवसेना के एक नेता ने सफाई दे दी है। उन्होंने इसे एक बुजुर्ग की सलाह भर बताया है। फिर भी हमें याद रखना होगा कि यह तब हुआ, जब लगभग पूरे देश ने सचिन के इस बयान का साथ दिया कि वे मराठा अथवा मुंबईवासी होने के पहले एक भारतीय हैं। हमें सचिन के इस बयान का न केवल स्वागत करना चाहिए, बल्कि औरों को भी उनसे प्रेरणा लेने की जरूरत है। आज कुछ ही लोगों को ध्यान होगा कि पूर्व अभिनेत्री और सांसद जया बच्चन को इसी तरह का अपना बयान करीब करीब वापस लेना पड़ा था। काश,वह जल्दी में नहीं होतीं, और उनका भी तब समर्थन किया गया होता। जरूरत इस बात की है कि महाराष्ट्र की राष्ट्रीय विभूतियां, चाहें वे किसी भी क्षेत्र की हों, मिलकर सचिन के पक्ष में बयान दें। इस मामले में देर उचित नहीं है। महाराष्ट्र की जनता ने हाल ही में मतदान के जरिए अपना फैसला सुना दिया है। वह दिन दूर नहीं, जब हिंदू महासभा जैसी कट्टर संस्था की तरह शिवसेना का भी कोई नामलेवा नहीं रह जायेगा। हिंदू महासभा से शिवसेना को भी सबक लेनी चाहिए कि धर्म और क्षेत्र विशेष के नाम पर राजनीति का कोई स्थाई भाव नहीं हुआ करता।
Sunday 15 November, 2009
एक बूंद और.....
ब्लॉगर्स के महासमुद्र में एक बूंद इस आशा के साथ कि मंथन की प्रक्रिया में यह भी भागीदार होगी। समुद्र मंथन में स्पष्ट तौर पर हमें दो पक्ष दिखाई देते हैं। पर देव और दानवों के साथ मेरु, रज्जु और यहां तक कि खुद समुद्र के उदर की, समुद्र मंथन में भागीदीरी से कैसे इंकार कर सकते हैं। समुद्र के महोदर में ही तो होते हैं अथाह जलकण। उस जलराशि के एक-एक बूंद का महत्व क्या संपूर्ण समुद्र के अस्तित्व से अलग है। चिंतन के दौर चलते रहते हैं, बहस स्वाभाविक है। फिर भी अणु से परमाणु युग को भी पार करता समय, समुद्र के एक बूंद के अस्तित्व को कैसे नकार सकता है। पिछले साल (संभवतः जून में) "जब-तब' नाम से एक ब्लॉग शुरू किया था, पर वह शुरूआत ही रह गई। उम्मीद जाहिर की थी कि समाज में हो रही हलचल पर कभी-कभी खुद भी कुछ कहा करूंगा। कतिपय कारणों से स्थान परिवर्तन हुआ...और फिर स्मृति भ्रम कि उसे चला नहीं सका। जब-तब के बाद खुद के स्पष्ट नाम से उपस्थिति का मकसद सिर्फ चर्चाओं में यदा-कदा भागीदारी ही है। एक बूंद के साथ प्रारंभ इसलिए कि आइए, मिलकर इस तरह के कई बूंद, और अंततः महासमुद्र का बहु अंश बनाएं। ऐसा निवेदन करते समय यह भ्रम कत्तई नहीं है कि यह प्रक्रिया जड़ है। यह क्रम तो चलता ही रहता है। विचार करें कि एक बूंद, अथवा समाज में एक व्यक्ति की उपस्थिति क्या संपूर्ण समाज, या यूं कहें कि दुनिया के लिए अर्थवान नहीं है। यह सवाल नहीं है, शायद खुद के लिए कैनवस भी, जिस पर रह रहकर रंग उभरा करेंगे। ये रंग सिर्फ एक कूची का नहीं होगा। आइए, कुछ रंग आप भी भरिए! ये रंग कल्पनाओं के हो सकते हैं, पर अंत में फिर सवाल कि रंग यथार्थ भी तो दिखाते हैं?
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