Sunday 27 December, 2009

ऐसा जीवन और ये विदाई!


पंडित नारायण दत्त तिवारी का नाम लेते ही अब देश की एक संवैधानिक पीठ के कंलकित होने का दृश्य सामने उभर आया करेगा। तिवारी जी पर लगे सेक्स स्कैंडल के आरोप सिद्ध नहीं हैं। फिर भी इस चर्चा मात्र से राष्ट्रीय आजादी के लिए समर्पित सिपाही और देश के नव निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान करने वाले कर्मठ नेता के उपर वे दृश्य भारी साबित होंगे,जब आंध्र राजभवन के बाहर बड़ी संख्या में महिलाएं उन्हे कोसती हुई नारे लगा रही थीं। सार्वजनिक जीवन, खासकर राजनेताओं पर तरह-तरह के आरोप अब आम हो चले हैं। तिवारी जी और उन पर लगे आरोप दोनों आम नहीं हैं। वे प्रजा सोशलिस्ट पार्टी और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की परंपरा वाले कार्यकर्ता रहे हैं। इसी लिए जब केंद्र सरकार ने टी वी चैनलों पर उनके बारे में चल रही खबरों पर राज्य की सरकार से रिपोर्ट मांगी तो वे उसका मंतव्य समझ गये। उन्होंने समय रहते इस्तीफा दे दिया। फिर भी यह दुखद प्रसंग उनके जीवन के साथ जुड़ा रहेगा। जिस नारायण दत्त तिवारी का नाम इलाहाबाद वि·ाविद्यालय छात्र संघ भवन के लिए गर्व और गौरव का विषय हुआ करता है,उस भवन में भाषण करते छात्र नेता अब शायद उनकी परंपरा से जुड़ना पसंद न करें। संभव है कि लखनऊ की गलियों में तिवारी जी की चर्चा करने में लोग शर्म का अनुभव करें, क्योंकि अविभाज्य उत्तर प्रदेश ने उन्हें हमेशा सम्मान की नजर से देखा है। उत्तराखंड के लोगों का सिर तो इससे झुक ही गया है। शर्म और हया की चर्चा आम लोगों के लिए है, उन लोगों के लिए जिन्होंने तिवारी जी को स्वतंत्रता सेनानी.कुशल प्रशासक और जनप्रिय राजनेता के रूप मे देखा है। तिवारी की जनप्रियता ही थी कि उनसे सत्ता के आकांक्षी नेता इसलिए घबराते थे कि वे लोकतंत्र की सबसे बड़ी कुर्सी तक न पहुंच जायं। समय ने ऐसा नहीं होने दिया, और जब वे उम्र के आखिरी पड़ाव पर हैं, इस सार्वजनिक जीवन से उनकी ऐसी विदाई अच्छी नहीं लगती। फिर भी सवाल बना रहेगा कि सेक्स स्कैंडल के आरोप तिवारी जी पर ही क्यों लगते रहे? क्या व्यक्तिगत कमजोरी के वे शिकार हो गये थे? यदि ऐसा है तो सार्वजनिक छवियों के बारे में बनती बिगड़ती धारणाएं एक निश्चित आकार नहीं ले पाएंगी। स्वतंत्रता आंदोलन के बाद वे सुख सुविधाओं के आदी हो चले थे, स्वास्थ्य कारणों से सड़कों की धूल भी उन्हें परेशान करती थी। इसके बावजूद ये सच है कि सुविधाभोगी तिवारी जी पर सुविधा के लिए आर्थिक गड़बड़ियोंका आरोप कभी नहीं लगा। वे लालबहादुर शास्त्री नहीं बन पाये, पर उनकी तरह मिट्टी से जुड़े जरूर रहे। वे नेहरू नहीं हो सके, पर देश के लिए नेहरू की दृष्टि हमेशा उनकेपास रही। काश उनके पिछले कुछ वर्षों को भी इसी रूप में देखने का अवसर मिला होता।

Friday 25 December, 2009

वाह गुरू!



इलाहाबाद में कुछ "गुरू' लोग हुआ करते हैं। गुरु नहीं "गुरू'लोग। ऐसा लिखते समय मैं उन गुरुओं की बात नहीं करता, जो अब इस धरती पर नहीं हैं। ऐसे गुरुओं में छुन्नन गुरू भी हुआ करते थे। प्रखर समाजवादी छुन्नन गुरू। उनके बारे में कहा जाता था-""हाथ में सोंटा, मुख में पान, छुन्नन गुरू की ये पहचान।'' यह भी कि छुन्नन गुरू ने जनता के किसी सवाल पर अपना सोंटा किसी अधिकारी के टेबल पर रख दिया तो, वह तभी उठेगा जब समस्या का समाधान हो जाय। छुन्नन गुरू की याद झारखंड के "गुरू जी'के संदर्भ में इसलिए आती है कि वे भी जन नेता रहे हैं। झारखंड के निर्माण में उनके योगदान को भुलाया नहीं जा सकता, उससे भी ज्यादा आदिवासियों की लड़ाई में उनकी भागीदारी को। जल, जंगल और जमीन पर वहां के रहने वाले लोगों की ही मिल्कीयत हो, यह मुद्दा रहा है गुरू जी का। इसीलिए वे झारखंड, खासकर आदिवासी क्षेत्र में आदर के पात्र हैं। गुरू जी की उपाधि भी उनके किसी एक अथवा कुछ शिष्यों ने नहीं दी है। यह सम्मान उनके लाखों लाख अनुयायियों का दिया हुआ है, जिसे मीडिया ने इधर खूब प्रचारित किया। झारखंड विधान सभा के चुनाव परिणाम आये, तो किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलने के बावजूद एक बात तय दिखी। वह यह कि गुरू जी की गुरुता कायम है, वे ही सबसे बड़े नेता हैं। उनके दल झारखंड मुक्ति मोर्चा को मिली सीटों के आधार पर तय हो गया कि वे गुरु ही नहीं हैं, अब "राजगुरु' भी बन सकते हैं। पर गुरू जी को इतने पर संतोष नहीं है। राजगुरु तो राजतिलक करता है, फिर राजा को राज चलाने का मंत्र भी दिया करता है। गुरू जी खुद राजा बनने से कम पर तैयार नहीं हैं। उन्हें गंवारा नहीं है कि आदिवासी राज्य के लिए लड़ने के बाद बने राज्य में राज करने के सुख से वंचित रह जायं। फिर राज परिवार की एक परंपरा भी होती है। लिहाजा वे यह भी तय कर लेना चाहते हैं कि उनके सिंहासन खाली करने पर उनका सुपुत्र ही उस पर विराजमान हो। इसीलिए चुनाव परिणाम आने के दूसरे दिन उन्होंने सरकार में अपने लिए सीएम और अपने बेटे के लिए डिप्टी सीएम बनने की शर्त रख दी है। देखना है कि इसे बीजेपी स्वीकारती है, अथवा कांग्रेस। फिलहाल तो गुरू जी "गुरू' ही निकले। उनहें कांग्रेसी नेता सुबोधकांत सहाय के यह याद दिलाने पर कोई मलाल नहीं है कि वे दो बार सीएम पद के लिए अयोग्य करार दिए गये हैं। सहाय का इशारा मुख्यमंत्री बने शीबू सोरेन पर भ्रष्टाचार का आरोप लगने, और दूसरी बार सीएम के रूप में उपचुनाव हार जाने की ओर है। जो भी हो जोड़तोड़ की राजनीति में जो ज्यादा जरूरी होता है, महत्व उसी का ज्यादा होता है। फिर झारखंड में तो निर्दलीय मधु कोड़ा का भी बड़ी पार्टी कांग्रेस के समर्थन से मुख्यमंत्री बनने का उदाहरण है। उस कोड़ा का, जो करीब चार हजार करोड़ रुपये की अघोषित संपत्ति रखने के आरोप में जेल में हैं। जेल गुरू जी भी हो आये हैं। आदिवासियों का दर्द दूर करने की लड़ाई में, और झारखंड निर्माण के संघर्ष में भी। फिर वे हत्या, हत्या की कोशिश और घोटालों के आरोप में भी जेल जा चुके हैं। यह अलग बात है कि अभी तक इन आरोपों में से कोई सिद्ध नहीं हो सका है। गुरू जी यह मानने वालों में शामिल हैं कि जब तक आरोप सिद्ध नहीं होते, आरोपी कसूरवार नहीं होता। उन्हे इससे क्या मतलब कि जब तक आरोप गलत न ठहरा दिए जायं, कोई व्यक्ति शंकाओं से परे नहीं हो जाता। फिर उन्होंने यह तो सोचना भी गंवारा नहीं किया होगा कि ऐसे व्यक्ति को सार्वजनिक पदों से दूर रहना चाहिए। आखिर वे "गुरू' जो हैं। ऐसे "गुरू' जो सम्मान के पात्र भी होते हैं, अपने "फन' के माहिर भी होते हैं। गुरू जी को अपने समर्थकों में खूब सम्मान मिलता है। वे अपने फन के माहिर किस हद तक हैं,यह भी समय-समय पर सामने आता रहता है। अभी तो बस यही कहने का मन करता है-वाह गुरू!

Wednesday 16 December, 2009

इस हंगामे को शुभकामना

देर से ही सही, संसद में सभी विपक्षी दल किसी जनहित के मुद्दे पर एकजुट हुए हैं। यह एकजुटता संसद के बाहर मीडिया के सामने भी दिखी। हम उम्मीद करें कि इसे बरकरार रखा जा सकेगा। संसद में हंगामा और संसद के बाहर हंगामा, इस हंगामे के लिए शुभकामना जताने का कारण है महंगाई से खुद का जूझना। खुद का जिक्र इसलिए कि मैं भी उन करोड़ों लोगों में से आता हूं, जो हर कीमत पर खाने की हर जरूरी चीज नहीं ले सकता। सच्चाई यह है कि इन करोड़ों लोगों को सस्ते गल्ले की दुकानों तक जाने की भी इजाजत नहीं है। ये लोग गरीबी रेखा के नीचे नहीं आते। यानि बात उस मध्य वर्ग की कही जा रही है, जो महंगाई से सबसे अधिक परेशान है। ऐसा नहीं है कि हमारे देश की सबसे बड़ी पंचायत में पहली बार महंगाई की चिंता की गई है। लोकसभा के पिछले चुनाव से ही यह मसला गरम था, पर अमेरिका के साथ परमाणु समझौता सरकार की प्राथमिकता थी, तो विपक्ष को भी लगता था कि ये समझोता हुआ तो देश अमेरिका के हाथों बिक जायेगा। बहरहाल अमेरिका के साथ हुआ समझौता जब रूस तक पहुंचा तो विपक्ष, यहां तक कि कामरेड्स को भी अहसास नहीं रहा कि यह समझौता अमेरिकी संधि से भी बड़ा है। डॉक्टर मनमोहन सिंह सरकार की इस बात के लिए सराहना की जानी चाहिए कि देश की आणविक जरूरतों को ध्यान मे रखते हुए उसने कूटनीतिक तरीके से दुनिया की दो बड़ी शक्तियों से बहुत कुछ हासिल कर लिया है। यह विस्तार फ्रांस और दूसरे देशों तक भी जाता है। भविष्य में देश इन समझौतों के जरिए बिजली और आणविक ऊर्जा के गैर सामरिक कार्य कर सकेगा। फिर भी इससे मुंह नहीं मोड़ा जा सकता कि लोगों की रोज की जरूरतें उन्हें भविष्य के सुहाने सपने देखने नहीं दो रही है। हम आम तौर अपना हाल बताने के लिए कह दिया करते है कि दाल- रोटी चल रही है। हालात ये हैं कि देश के दिल दिल्ली तक में लोगों की दाल गल नहीं पा रही है। मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने सचिवालय के बाहर और दिल्ली के दूसरे क्षेत्रों में पहले दाल और बाद में आटा बिकवाया। इलेक्ट्रानिक चैनलों पर शीला जी की दाल खरीदते अथवा बेचते तस्वीर दिखी, और अब तस्वीर की तरह दुकानों से सस्ती-दाल और आटा गायब है। दुकानदार कहते हैं कि सप्लाई नहीं आई, मुख्यमंत्री भी कहती हैं कि अनाज दिल्ली में तो है नहीं, कभी-कभी सप्लाई लाइन डिस्टर्व हो जाया करती है। माना कि महंगाई पर अपनी चिंता दर्शाने के लिए कांग्रेस के कुंवर ने इकोनामी क्लास में यात्रा शुरू की, यह भी कि वे ट्रेनों में भी चले, मंत्रीगण भी इसके लिए बाध्य हुए। सत्ता पक्ष को सदस्यों को पहले ही एक महीने का वेतन प्रधानमंत्री के आपदा कोष में देने को कहा गया था। फिर भी महंगाई सुरसा का मुंह हो गई है। उसमें घुस कर सुरसा को पराजित करने वाला कोई हनुमान ही हो सकता है।
आखिर महंगाई पर नियंत्रण क्यों नहीं हो रहा? दिल्ली में बैठी शीला जी के बयान के ठीक उलट केंद्र और राज्यों के खाद्यान्न मंत्रियों का दावा काफी हद तक सच है कि देश के खाद्य भंडार भरे हुए हैं। फिर सवाल लाजिमी है कि इस खाद्यान्न को सुचारू तरीके से बाहर निकाला क्यों नहीं जा रहा? "सुचारु' शब्द पर जोर देना आवश्यक इसलिए कि लोचा यहीं है। हम बचपन से सुनते आ रहे हैं कि हर आम चुनाव के बाद महंगाई कुछ कदम का फासला तय कर लेती है। इस कथन के पीछे भाव यही है कि चुनावों में औद्योगिक घरानों से लिया गया चंदा सरकारी कोड़े को नरम कर देता है। क्या यही बात फिर से कहने का अवसर नहीं है? खाद्यान्न बाजारों तक पहुंचते पहुंचते इतना अधिक महंगा कैसे हो जाता है? किसानों को उनकी उपज का सही मूल्य नहीं मिलता। खाद, पानी, बिजली महंगी होती जा रही है। उधर खेती की उपज पहले के मुकाबले पर्याप्त कीमत नहीं दे रही। सवाल केवल खाद्यान्न का ही नहीं है। अपना अनाज सस्ता बेचकर जरूरत की बाकी जींस सस्ती खरीदनी पड़ती है। अब जब कि संसद में विपक्ष एकजुट दिख रहा है, उम्मीद की जानी चाहिए कि किसानों को गन्ना मूल्य पर दिल्ली मार्च कराने की तरह महंगाई पर भी उन्हें लामबंद किया जायेगा। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गन्ना किसान अपनी उपज के अधिक मूल्य के लिए दिल्ली में जमे तो अजित सिंह के साथ मुलायम सिंह और राजनाथ सिंह भी आ गये थे। संसद में महंगाई पर हंगामा हुआ है तो मुलायम सिंह आंदोलन की हुंकार भरने में देर नहीं कर रहे हैं। ध्यान रखना होगा कि महंगाई पर जिलों में जेल भरने का सिलसिला पार्टियां पहले भी चलाती रही हैं। जरूरत यह है कि संपर्ण विफक्ष इस सवाल पर एक साथ बैठकर सोचे। और विपक्ष ही क्यों, तेलंगाना अथवा संयुक्त आंध्र के सवाल पर कांग्रेसी सांसद भी अपनी पार्टियों की परिधि तोड़ सकते हैं , फिर यह तो उस जनता से जुड़ा मसला है जो संसद और सांसदों का भविष्य तय करती है।

Friday 11 December, 2009

बने एक राज्य पुनर्गठन आयोग

उत्तर प्रदेश के दो हिस्से किए जाने की मांग पर कभी इस राज्य के तत्कालीन मुख्य मंत्री पंडित गोविंद बल्लभ पंत ने खीझ भरे स्वर में कहा था- दो ही क्यों, इस राज्य को चार भागों में बांट देना चाहिए। पंत जी का तब अगला ही वाक्य था- गंगा यमुना की घरती को टुकड़ों में बांटना ठीक नहीं होगा। ध्यान रखना होगा कि उन्हीं पंडित गोविंद बल्लभ पंत ने देश के गृहमंत्री की हैसियत से भाषाई और प्रशासनिक आधार पर राज्यों के पुनर्गठन में बड़ा योगदान किया था। कहने का सबब यह है कि राज्यों का गठन अथवा पुनर्गठन भाषा और प्रशासन के साथ भावनाओं का भी मसला है। यह हो सकता है कि ये भावनाएं समय समय पर किसी राजनीतिक दल अथवा कुछ राजनेताओं के मकसद साधने का जरिया बन जाती हों। पंडित पंत की दृढ़ निश्चयी दृष्टि और फिर कांग्रेस पार्टी में उनकी पकड़ ही थी कि उनके मुख्यमंत्री रहते राज्य विभाजन की हल्की मांग को कोई समर्थन नहीं मिल पाया। पर इस सच्चाई को आज अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि उत्तर प्रदेश में हिमालयी क्षेत्र (जो खुद पंत जी का गृह क्षेत्र भी रहा) उत्तराखंड बनने के बाद आज प्रगति की ओर बराबर अग्रसर है। तो क्या पंडित गोविंद बल्लभ पंत राज्य विभाजन का विरोध कर उत्तर प्रदेश की पहाड़ी जनता के विकास में बाधा खड़ी कर रहे थे? यह कहना देश के इस महान स्वतंत्रता सेनानी के साथ न्याय करना नहीं होगा। इतिहास गवाह है कि उन्होंने पहाड़ों के जंगल और जमीन पर वहां के वाशिंदों को हक दिलाने के लिए विधान सभा में बार बार पहल किया था। आज देखना होगा कि वे पहाड़ की जनता क्या उन जंगलों पर पहले से अधिक हक पाने में सक्षम हुई है। जवाब बहुत कुछ सकारात्मक नहीं होगा। हां यह जरूर हुआ कि छोटा राज्य अधिक बजट के साथ कई क्षेत्रों में कारगर पहल कर रहा है। पर हर छोटा राज्य ऐसा नहीं है। झारखंड इसका उदाहरण है, जहां अपार खनिज संपदा होने के बावजूद आशानुकूल प्रगति नहीं हो सकी। तो फिर हर छोटे राज्य के बारे में यह फार्मूला कारगर क्यों नहीं होता। जवाब वही भावना है। सवाल यह है कि नये राज्य निर्माण के पीछे उसके लिए काम करने वाले नेतृत्व वर्ग की मंशा क्या है। छोटे राज्यों के साथ उन्हे चलाने की एक सुनियोजित दृष्टि भी जरूरी है। आज जब नये तेलंगाना राज्य पर सहमति-असहमति की बहस छिड़ गई है, इसी समय एक और बहस चलानी चाहिए। छोटे राज्य, तय है कि प्रशासनिक दृष्टि से किसी सरकार और शासन के लिए सर्वथा बेहतर होते हैं। पर इसका मतलब यह तो नहीं कि हर जिला एक राज्य बन जाय। जिले के बराबर राज्य में मंत्रिपरिषद, उसके सचिवालय और दूसरे जरूरी खर्चों पर करोड़ों करोड़ रुपये बहाए जायं। जिले में ये प्रसासनिक व्यवस्थाएं तो पहले से ही हैं ( सिर्फ मंत्रिपरिषद छोड़कर)। फिर आप कहेंगे कि इन्हें राज्य मानने में दिक्कत क्या है। दिक्कत यह है कि राज्यों और केंद्र की राजधानी में बैठी सरकार के लिए किसी राष्ट्रीय मुद्दे पर सहमति के लिए सैकड़ों सरकारों से बात करनी पड़ेगी। यह भी कि सरकारों के नाम पर कई तरह के अनुपयोगी और अनुत्पादक मसलों पर अपार धन खर्च होगा। आम सहमति सरकार के लिए आदर्श स्थिति होती है, वहां भावनाओं से काम नहीं चलता। इसमें दो राय नहीं कि तेलंगाना आंध्र के दूसरे क्षेत्रों से पिछड़ा है। फिर भी उसके विकास पर बात करने की जगह दबाव में राज्य बनाने की बात मान लेन से देश के दूसरे क्षेत्रों में भी ऐसी दबी मांगें फिर से उठने लगी हैं। यह संकेत बेहतर नहीं कहे जा सकते। जरूरत इस बात की है कि आज फिर से एक राज्य पुनर्गठन आयोग बनाकर सारे संबेधित मसलों पर विचार किया जाय। आयोग बनाते समय उसके स्वरूप का भी ख्याल रखना होगा। उसमें पूरे देश का प्रतिनिधित्व जरूरी होगा।

Saturday 5 December, 2009

नाराज है यमुना!

मेरे गृह जनपद के ख्याति प्राप्त एक संस्कृत विद्वान को दिल्ली जाना था। वहां के लिए उन्हे हवाई यात्रा की सुविधा मिली, तो उन्होंने हवाई जहाज से यात्रा करने से मना कर दिया। इनका तर्क निराला था कि जिस वाहन का कोई आधार ही नहीं हो, उससे यात्रा नहीं करनी चाहिए। उनकी ओर से सोचा जाय तो तर्क में दम है। शायद इसी लिए बहुत पहले हमारे यहां से यूरोपीय देशों में जाना वर्जित माना गया था। लगता है कि वायु और जल यात्रा की दु·ाारियां ही इसका कारण रही होंगी। वायु और जल मार्ग से दूर जाना आसान नहीं था। पूर्वी उत्तर प्रदेश से बड़ी संख्या में निकले लोग कभी मारिसस, सूरीनाम आदि देशों की ओर गये तो वहीं के होकर रह गये (आज भले वे अपनी जड़ खोजने यहां आते रहते हैं)। फिर हिंदू मानसिकता वाले लोग "मलेच्छों' के देश जाने से बचते रहे हैं। दौर बदला तो अपने ही देश में दूर तक जाने के लिए हवाई और जलमार्गों का विकास हुआ। हिंदू मतावलंबियों ने रास्ता निकाल लिया-गांव के पास नदी तो पार करते ही है, कुछ और नदी अथवा समुद्र सही। सो नाविक जैसे नदी पार करते समय अपने आराध्य का स्मरण करता है, आप भी कर लीजिए। लगता है नदियों पर पुल बनाने वालों को ये तरीका पसंद आया। पुल निर्माण शुरू करो तो शिलान्यास के लिए पूजा, पुल से गुजरना शुरू करो तो उद्घाटन के नाम पर अनुष्ठान। यह धड़ाधड़ होने लगा। देश की महत्वाकांक्षी मेट्रो प्रोजेक्ट इसमें पीछे क्यों रहे। दिल्ली की सीमा से बाहर यूपी जाने के लिए यमुना नदी पार किया तो पूजा-अनुष्ठान हुए। यहां तक कि आर्य समाजी बहन मायावती ने नोएडा की ओर से ट्रेन को झंडी दिखाई तो उन्होंने न सही, उनके अधिकारियों ने ई·ार का आभार जताया। पर एक गलती शायद रह गई। दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित रही हों, उत्तर प्रदेश की बहन जी, अथवा मेट्रो मैन श्रीधरन साहेब, किसी को यमुना मैया की याद न रही। उस यमुना की, जिसे दोनों प्रदेश की जनता पहले से ही कलुषित करती रही है। उस यमुना का सीना चीरकर मेट्रो जब यमुना बैंक तक पहुंची, तो भी उसकी पूजा नहीं की गई। यमुना बैंक तक निकल ही आये थे, तो सिटी सेंटर तक जाने में कोई दिक्कत होनी नहीं थी। आपको लगता होगा कि मैं यमुना से आपको डराना चाहता हूं। ऐसा करने में मेरा कभी यकीन नहीं रहा है। यमुना वैसे भी हर बरसात में दिल्ली के झोपड़ पट्टी वालों को डराती है। मैं तो उस ओर आपका ध्यान खींचना चाहता हूं,जो आये दिन नोएडा और दिल्ली के बीच मेट्रो यात्री झेल रहे हैं। यमुना बैंक से ट्रेन इंद्रप्रस्थ की ओर चले, अथवा इंद्रप्रस्थ से यमुना बैंक की ओर,आये दिन रुक जा रही है। फिर घोषणा शुरू हो जाती है-इस यात्रा सेवा में थोड़ा विलंब होगा, इस असुविधा के लिए हमें खेद है। याद रखिए कि इन दोनों स्टेशनों के बीच ही यमुना है। मैं नहीं कहता कि यमुना क्यों मेट्रो ट्रेनों को ठीक बीचोबीच उस जगह पर रोक देती है, जहां ट्रेन के अंदर से आप उसकी बदहाली निहार सकते हैं। हम जानते हैं कि मेट्रो इसलिए रुकती है कि उसे सिग्नल देने की व्यवस्था अभी सुचारु नहीं हुई है। हम - आप ये तो जानते ही हैं कि देश की गहरी नदियों में शुमार यमुना दिल्ली आकर नालों में बदल जाया करती है। फिर भी हमारे देश में नदियों का महात्म्य है कि छठ पर्व पर लाखों लोग इस सूखी नदी के किनारे आदर भाव से एकत्र हो जाते हैं। तब वोट की चिंता में ही सही, दिल्ली सरकार की मुखिया भी छठ घाटों की चिंता में निकल पड़ती हैं। पर फिर याद रखने की बात है कि यह छठ पूजा करने वाले मतदाताओं की चिंता है, उस यमुना की नहीं जिसके तट पर ये एकत्र होते हैं। माना कि यमुना की शुद्धि के लिए कई सौ करोड़ रुपये का प्रोजेक्ट है। सवाल तो ये है कि यमुना के लिए वे व्यावसायिक प्रतिष्ठान आगे क्यों नहीं आते, जो रोज करोड़ से उपर की कमाई कर रहे हैं। मैं तो यमुना से माफी ही मांग सकता हूं। मैं लोगों को बता सकता हूं कि यमुना नाराज है, उससे आप भी माफी मांगे। जिनके पास धन नहीं है लोगों को जगाकर। जिनकी जेब भारी है वे यमुना की मुक्ति में कुछ धन लगाएं। क्या यह नहीं हो सकता? फिर धन के साथ कोई ऐसा योजनाकार भी जरूरी है, जो यमुना के साथ अमर हो सकने की क्षमता रखता हो।

Thursday 3 December, 2009

कब लौं भुलानी, कब लौं भुलइहौं?

भक्ति साहित्य में ये पंक्ति सर्व विदित है- अब लौं नसानी, अब ना नसइहौं। इस पंक्ति को अपने विषयानुकूल करने का सीधा सा स्वार्थ है कि इसके सहारे अपनी बात आगे बढ़ाई जा सके। हमारे इर्द गिर्द बहुत से ऐसे लोग मौजूद होते हैं, जो अपनी गलतियां नहीं दुहराने की रोज ही कसमें खाते हैं। उन्हें न तीसरी कसम की सीमा याद आती है, और न भक्त कवि की इस पंक्ति से उनका कोई साबका है। आप कहेंगे इस छायावादी मसले को क्यों उठाया जा रहा है। दरअसल यह मामला छायावाद का नहीं है। हम अपने जीवन में आए दिन कोई न कोई गलती करते ही हैं। तय करते हैं कि फिर ऐसा नहीं करेंगे। ई·ारवादी हुए तो और आसान कि भगवान सर्वव्यापी है। किसी और को कुछ बताने की जरूरत नहीं है। अकेले में ईशवर से माफी मांगी, नाक रगड़ा और पापमुक्त हो गये। इन दो तरह के प्राणियों के अतिरिक्त तीसरे स्तर के भले मानुषों की चर्चा भी करनी चाहिए। जिसके साथ कुछ गलत किया,उसी से माफी मांग लेंगे। यह आदर्श स्थिति होती है। अपने मन का मालिन्य धुल जाता है, तो अगला भी मनुष्य जोनि का हुआ तो कोई गिला-शिकवा नहीं रखेगा- "" चलो आदमी ही तो है, गलतियां किससे नहीं होती। कभी मैं भी तो गलती कर सकता हूं।'' फिर भी इस तीसरे किस्म के भले मानुष की चर्चा विस्तार से। आप कहेंगे कि आज कौन अपनी गलती पर पछताने जा रहा, पर नहीं, जरा रुककर सोचिए। गलती करने के बाद अहसास हो कि अगला कोई नुकसान कर सकता है, अथवा यह कि वह भविष्य संवारने में कभी काम का होगा, तो अकेले में उससे छोटा बन जाने में क्या जाता है। ई·ार के सामने तो करोड़ों-करोड़ों रोज छोटे साबित होते रहते हैं। एक के आगे एक के छोटा बनने में क्या हर्ज है। घर में माता-पिता बड़े ही होते हैं, बड़े भाई-बहन के साथ "बड़े' शब्द जोड़ ही दिया गया है। कहा गया है कि -""छमा बड़ेन को चाहिए, छोटन को उत्पात'' इसका अर्थ यह कि छोटे सिर्फ उत्पात करते रहें, माफी तो मिलनी ही है। घर में भी मिलती रही है, बाहर भी मिलेगी। फिर भी कल्पना करिए कि छोटे की उम्र काफी हिस्सा पार कर गई, अब उसके भी छोटे हैं। फिर वह कब तक गलतियां करता रहेगा। शायद ऐसे लोग इस धरती पर आए ही हैं गलती करने के लिए। असल में गलती वह नहीं करते। गलती आपकी है, जो आप उनके सामने होने की हिम्मत करते हैं। सोचिए ऐसा भला मानुष घर में किसी बात पर बीवी से लड़ कर आया हो। बीवी के तर्कों के तीर कारगर रहे हों, बच्चे के दूध का पैसा अभी तक नहीं दिया गया, दूध वाला कह गया है कि कल नहीं दिया तो दूध बंद। फिर और भी तो काम है। कब तक बड़ों के सहारे रहोगे, अब खुद भी तो बड़े बन जाओ। भलमानुष क्या करे, घर में बड़ा बन नहीं पाता, बाहर वाले उसकी भलमनसाहत को जानते हैं, सो वहां भी बड़ा बनने की गुंजाइश नहीं रहती। लिहाजा वह रह रह कर अपने "बड़प्पन' का अहसास कराता ही रहता है। अपने इस बड़प्पन में ये भलेमानुष खोए रहते हैं। आप फिर पूछने की गलती मत कर बैठिएगा- कब लौं भुलानी, कब लौं भुलइहौं?

Saturday 28 November, 2009

शुभ हो......


स्मिता ठाकरे ने बगावत कर दी है। वे शिव सेना से अलग होकर कांग्रेस में जाने की तैयारी कर रही हैं। यहां आकर उनकी बगावत राज ठाकरे की बगावत से अलग हो जाती है। करीब तीन साल पहले राज ठाकरे ने अपने चाचा और शिवसेना प्रमुख बाला साहेब ठाकरे से अलग होकर महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (एमएनएस) का गठन किया था। स्मिता ठाकुर भी ठाकरे परिवार की बहू हैं। वे इस मामले में राज से भी अधिक बालासाहेब की करीब हैं कि वे बाला साहब के बड़े बेटे जयदेव की पत्नी हैं। जयदेव ठाकरे ने पहले ही बालासाहेब के निवास "मातोश्री' से अपने को अलग कर लिया था। तब स्मिता ने "मातोश्री' में ही रहने का फैसला किया। वे बाद में जुहू के अपने बंगले में गई थीं। यानि कि पारिवारिक विवाद के बावजूद वह शिवसेना से कुछ उम्मीद कर रही थीं। राज ठाकरे की तरह उनकी उम्मीदें भी अधूरी रह गर्इं तो उन्होंने शिवसेना को बॉय- बॉय बोलने का फैसला कर लिया है। यहां आपको लग सकता है कि राज और स्मिता, दोनों की अधूरी महत्वाकांक्षा ने ही उन्हें बगावत के लिए प्रेरित किया। यह काफी हद तक सच है। इसके बावजूद शुभ यह है कि स्मिता पूरे देश की जगह सिर्फ महाराष्ट्र की चिंता नहीं कर रही हैं। शायद मराठा मानुस का नारा लगाने के लिए उन्हें भी एक सेना बनानी पड़ती। उन्हें भी ये कहना पड़ता कि मराठियों का हक उत्तरी भारत, और उनमें भी सबसे अधिक बिहारी ले जा रहे हैं। यह कहना आसान था,पर इस मानसिकता के साथ होने के लिए कुछ और कर गुजरने का साहस (दुस्साहस कहना ज्यादा ठीक होगा) करना पड़ता। क्या ऐसा दुस्साहस ठाकरे परिवार की एक और सदस्य नहीं कर सकती थी। जवाब के लिए बहुत परेशान नहीं होना है। मराठा मानसिकता के नाम पर किसी उत्तरी भारतीय समुदाय पर हमला, अथवा कथित रूप से मराठा मानसिकता के खिलाफ काम करने वाली मीडिया को निशाना बनाना उनके लोगों के लिए भी मुश्किल काम नहीं था। आखिर इस काम के लिए मुट्ठी भर भीड़ ही तो चाहिए। यह भीड़ कम से कम मुंबई में नामुमकिन तो नहीं है। ऐसा नहीं कर उन्होंने सोनिया गांधी और राहुल गांधी से प्रेरित होने की बात स्वीकारी है। यह शुभ इस अर्थ में नहीं है कि वे शिवसेना छोड़कर कांग्रेस में जा रही हैं। सच्चाई ये है कि स्मिता एक कट्टर क्षेत्रीय और काफी हद तक संकुचित दायरे में काम करने वालों का साथ छोड़ रही हैं। शिवसेना अथवा मनसे का संकुचन देशहित से उपर मराठा हित को रखता है। अड़तालीस साल की फिल्म निर्माता स्मिता पाटिल को ये समझ चाहें जैसे भी आई हो, इस समय विवाद का कोई कारण नहीं होना चाहिए। मैं मानता हूं कि उनकी पसंद कोई और पार्टी भी हो सकती थी। शायद कांग्रेस को पसंद करने का कारण केंद्र और महाराष्ट्र में उसका सत्तासीन होना ही है। कांग्रेस तत्काल भले न करे, कुछ दिनों बाद किसी सदन का सदस्य बनने की स्मिता की इच्छा पूरी हो सकती है। फिर भी क्या क्षेत्रीयता को देशहित से उपर रखने वालों को उन्ही के परिवार से बगावत का स्वागत नहीं होना चाहिए?

Wednesday 25 November, 2009

आत्म परिचय


सर्वोच्च सदनों में बैठे हमारे प्रतिनिधि जब भी निराश करते हुए से लगते हैं, मन व्यथित हो उठता है। पिछले दो दिनों से अयोध्या विवाद जैसे मसले पर सांसदों ने जिस गैर जिम्मेदारी का परिचय दिया है, और कुछ कहने की जगह एक बार फिर जेहन में उभर आई अपनी कुछ पंक्तियां ही प्रस्तुत कर रहा हूं.......
मैं कौन हूं, क्या हूं, पता है दुनिया को
मैं इक्कीसवीं सदी के भारतीय का प्रतिरूप
जिसे अपने दुःखों का बोध तो है
पर अंतर में दिवा स्वप्न पालता है।
उसी की आस में बैठा
उसी के चिंतन में अपना मस्तिष्क सालता है।
पर मेरा अपना गौरवमयी इतिहास भी है
मैं वंशज हूं श्रद्धा और मनु का
अंश हूं कर्तव्य के उन धुनी का।
मेरा यह शरीर मात्र अस्थि पंजर नहीं
इसमें दधीचि की हड्डियों का अंश है
जिससे देवराज ने बनाई प्रत्यंचा
असुरों का किया संहार
सृष्टि को भयमुक्त बनाया।
और वर्तमान मेंमैं अग्नि राख में पड़ा
अनबुझा एक तिनका
चाहे पैरों तले रौंद डालो
अपनी धरा में विलीन हो जाऊंगा
या बगल के कूड़े पर फेंक दो
उसे धरा में विलीन कर दूंगा।
तो मुझे मेरा भूत या वर्तमान, कुछ भी कह लो
पर मुझे आज का राजनीतिज्ञ न कहना
जो सुबह को और, शाम को कुछ और
कहने के और, करने को कुछ और।
इसलिए कहता हूं
कि मुझे मेरा भूत या वर्तमान, कुछ भी कह लो
पर मुझे आज का राजनीतिज्ञ न कहना।

Monday 23 November, 2009

बंद करें मंदिर-मस्जिद का खेल


जस्टिस मनमोहन सिंह लिब्रााहन आयोग की रिपोर्ट का इंतजार देश में बड़ी संख्या में लोगों को था। सरकार संसद में यह रिपोर्ट और उस पर एक्शन टेकेन रिपोर्ट रखती, उसके पहले ही आयोग की रिपोर्ट लीक होने से इसका इंतजार कर रहे लोग सहम गये होंगे। इस कथन में यदि आपको दम नहीं लग रहा हो, तो रिपोर्ट लीक होने के दिन ही लोकसभा की कार्यवाही पर नजर डालें। वहां बीजेपी और समाजवादी पार्टी, दोनों ने लिब्रााहन आयोग की रिपोर्ट संसद के पटल पर रखने की मांग की। बीजेपी के नेता (और लोकसभा में प्रतिपक्ष के भी नेता) लालकृष्ण आडवाणी तो इसे उसी दिन सदन में प्रस्तुत करने की मांग कर रहे थे। गृहमंत्री के इस बयान से भी बीजेपी संतुष्ट नहीं हुई कि सरकार संसद के चालू सत्र में ही रिपोर्ट पटल पर रख देगी। अब सवाल उठता है कि बीजेपी जल्दी में क्यों है। खुद आडवाणी ने लोकसभा के प्रश्नोत्तर काल में ही रिपोर्ट के सत्रह साल बाद आने के बावजूद नवबंर से उसे रोके जाने पर चिंता व्यक्त की। अब आडवाणी उसी रिपोर्ट का और कुछ दिन इंतजार करने के मूड में नहीं हैं। आडवाणी की जल्दी को समझने के लिए उनके रिपोर्ट लीक होने के दिन लोकसभा वाले भाषण से बाहर जाने की जरूरत नहीं है। वे कहते हैं कि अयोध्या में राम जन्मभूमि आंदोलन से जुड़े होने पर वे अपने को गौरवान्वित महसूस करते हैं। गर्व समाजवादी पार्टी के सांसद और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव को भी है, और अपने उस गर्व का इजहार उन्होंने भी लोकसभा में ही कर दिया। आडवाणी के बाद जब मुलायम सिंह बोलने के लिए खड़े हुए तो वे इस बात को लेकर गौरवान्वित थे कि मस्जिद गिराने की कोशिश करने वालों के खिलाफ उन्होंने कठोर कारर्वाई की थी। उन्होंने तो यहां तक कहा कि न चाहते हुए भी उन्होंने यहां तक एक्शन लिया कि कुछ लोगों को जान भी देनी पड़ी। बात साफ है कि दोनों अपने गर्व को फिर से व्यक्त करने का सुअवसर देख रहे हैं, और इसमें दोनों के लिए लिब्रााहन आयोग की रिपोर्ट संजीवनी का काम कर सकती है।
लोकसभा की कार्यवाही का दोनों पक्षों ने अपनी पुरानी इच्छा दुहराने में भी प्रयोग कर लिया। आडवाणी ने कहा कि मेरे जीवन की यह अभिलाषा है कि अयोध्या में एक भव्य राम जन्मभूमि बने। वे साफ कर देते हैं कि अभी वहां जो मंदिर है, वह राम जन्मभूमि की गरिमा के अनुकूल नहीं है। साफ है कि आडवाणी अयोध्या के उस विवादित स्थल पर ही राम मंदिर बनाना चाहते हैं, जहां मस्जिद गिराई गई थी, और जहां टेंट के बीच अद्र्धनिर्मित सा मंदिर है। उनकी यह इच्छा नई नहीं है। अब इस इच्छा के कुलांचे भरने का कारण शायद यह है कि उन्हे रिटायर करने की बात संघ परिवार में चल रही है। संघ परिवार को अपने पक्ष में करने का भी आडवाणी के लिए यह अच्छा मौका है। वे यह जताना चाहते हैं कि जिस राम जन्मभूमि के लिए उन्होंने रथयात्रा की, और जिस यात्रा से पार्टी में नई जान आ गई थी,उस ताजगी को फिर से वापस लाने का काम भी वही कर सकते हैं। इतिहास उनके पक्ष में खड़ा है कि राम जन्मभूमि आंदोलन ने हिंदू लहर पैदा कर दी थी। उस लहर का लाभ भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में अगले लोकसभा चुनाव परिणाम ने दिया था। बीजेपी बड़ी पार्टी बनकर उभरी, और बाद में भी उसकी सरकार बनी। ये अलग बात है कि पूर्ण बहुमत नहीं होने के कारण उसे दूसरे दलों का भी सहयोग लेना पड़ा, और हिंदू कट्टरता में अपेक्षाकृत उदार होने के कारण अटल बिहारी वाजपेयी बाजी मार ले गये। अब जबकि आडवाणी को पार्टी ने नेता के रूप में सामने किया तो कई कारणों से पिछड़ गये। पिछले लोकसभा चुनाव में आडवाणी के पिछड़ने के कारणों पर चर्चा बहुत हो चुकी है। फिर भी जरूरत होने पर यह अलग मुद्दा है। अहम बिंदु यह है कि आडवाणी की सोई इच्छा एक बार फिर जाग उठी है।
आप सवाल कर सकते हैं कि आडवाणी के साथ मुलायम सिंह यादव भी लिब्रााहन आयोग की रिपोर्ट जल्दी से जल्दी संसद में रखे जाने के हिमायती क्यों हैं। मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी को लोकसभा चुनाव में लगा झटका धीरे का भले हो, उपचुनाव आते आते उन्हे झटका खाते हुए साफ तौर पर देखा गया। फिर तो उन्होंने उन कल्याण सिंह से भी दोस्ती तोड़ ली, जिन्हें बीजेपी के नाश के लिए वे साथ लाये थे। दरअसल उन्हें अहसास हो चला था कि लिब्रााहन आयोग की रिपोर्ट आते आते कल्याण सिंह भी मुस्लिम विरोधी छवि के लिए एक बार फिर सामने होंगे। ऐसे में मुसलमान मतदाताओं को अब और नाराज करना समाजवादी पार्टी की सेहत के लिए सही नहीं होगा। साफ है कि आडवाणी की तरह मुलायम को भी लिब्रााहन आयोग की रिपोर्ट में ही अपने दल और खुद की राजनीति की संजीवनी दिख रही है। नहीं भूलना चाहिए कि ये राजनेता अपनी संजीवनी हासिल करना चाहते हैं। भले ही इस काम में देश के सामने महा संकट खड़ा हो जाय। लिब्रााहन आयोग का गठन संविधान सम्मत था। उसकी रिपोर्ट आए, उस पर कार्यवाही भी हो, पर इस तरह हंगामा खड़ा न किया जाय तो बेहतर होगा। संविधान और देश के कानून को शांति पूर्वक काम करने दिया जाना चाहिए। सवाल है कि क्या इस प्रक्रिया का उपयोग एक बार फिर मंदिर- मस्जिद के खेल में किया जायेगा? क्या फिर छह दिसंबर और उसके बाद की देशव्यापी हिंसा को बुलावा देना ठीक होगा? कम से कम आडवाणी और मुलायम का ताजा रुख तो ऐसा ही करता हुआ लगता है।

Thursday 19 November, 2009

Wednesday 18 November, 2009

इन किसानों की भी तो सुनो.........

मेरे गृह जनपद बलिया में मेरा घर ब्लॉक और तहसील मुख्यालय बांसडीह में है। तब मैं छोटा था। कई दूसरे लोगों की तरह तब के खंड विकास अधिकारी (बी. डी. ओ.) भी मेरे घर आया जाया करते थे। उन्होंने गेंहू के नये आये कुछ बीज दिए। इसलिए कि उन्हे हमारी पारिवारिक खेती के जमीन में उगाया जाय। पंतनगर से आये बीज को खेतों में बोया गया। बगल से गुजरती नहर के अलावा उस खेत के कोने में कुंआ भी है। बी डी ओ साहब की राय के अनुसार समय पर पानी, ऊर्वरक और कीटनाशक डाले जाते रहे। इतनी देखरेख के बाद खेती बेहतर होनी ही थी। हमारा वह खेत आसपास की खेती को मुंह चिढ़ा रहा था। लगा, जैसे हम विशिष्ट किसान परिवार हो गये हों (यह अलग बात है कि तब और आज भी हमारे घर की खेती दूसरों को आधी फसल की शर्त पर दी जाती है)। बहरहाल, यह संदर्भ याद आने की वजह संसद के शीतकालीन सत्र के पहले दिन दिल्ली में गन्ना किसानों का प्रदर्शन है। यह कहने में कोई संकोच नहीं कि ये किसान पश्चिमी उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के उन क्षेत्रों के हैं, जो उन्नत खेती के लिए पहचाने जाते हैं। वे उन्नीस नवंबर को लाखों की संख्या में दिल्ली इसलिए पहुंचे कि गन्ने का मूल्य बढ़ाने के लिए सरकार पर दबाव डाल सकें। बात खेती और सरकार के बीच की है। इसलिए विपक्ष भी इस मामले में पीछे क्यों रहे। दो प्रमुख राजनेता, किसान यूनियन के नेता महेंद्र सिंह टिकैत के साथ खड़े हो गये हैं। टिकैत बड़ा किसान आंदोलन शुरू करने के बावजूद कभी राजनेता नहीं बन सके। उनकी बोई फसल चौधरी अजीत सिंह के साथ पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव काटते रहे हैं। वे भी इन गन्ना किसानों के प्रबल हिमायती बन खड़े हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि महंगाई के साथ खेती में लागत भी बेतहाशा बढ़ी है। किसानों को लगता है कि लागत के मुकाबले उन्हें बाजार से काफी कम मिलता है। फिर चीनी की आसमान छूती कीमत भी उन्हें प्रेरित करती है कि जिस गन्ने से चीनी बनती है, उसका मूल्य भी तो बढ़ना ही चाहिए। किसानों की उनकी मांग पर कोई एतराज भला किसको हो सकता है। इसके बावजूद राजनेताओं के सामने कुछ सवाल हैं। बात जहां से शुरू की थी, वहीं चलते हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश में जहां मेरा गृह जनपद है, गन्ना भी उगाया जाता है। इसलिए रसड़ा के साथ सीमावर्ती जिलों में भी चीनी मिलें हैं। फिर भी गन्ने के मुकाबले दूसरी फसलें वहां ज्यादा होती हैं। शायद इसलिए कि गन्ने के लिए सिंचाई की बेहतर व्यवस्था और उसकी रखवाली इस क्षेत्र के किसानों के लिए भारी पड़ता है। नदियों के किनारे जब बाढ़ से बचे हों, और नहरों की सुविधा वाले क्षेत्र में धान की फसल होती है। प्रमुख रूप से धान के साथ यहां गेंहू भी पैदा होती है। इन दिनों पूर्वी उत्तर प्रदेश के खलिहान इसलिए भी देखने लायक हैं कि वहां खरीदारों की गाड़ियां लगी रहती हैं। आप को लग सकता है कि गन्ने की तरह यह मनी क्राप हो गई है, पर यह समझना भूल होगी। ऐसे किसान तो कम ही हैं, जो अपने यहां कम जगह होने से सारा धान रख नहीं पाते हों, और खलिहान से ही उसका बड़ा हिस्सा बेच देते हैं। जो दूसरे किसान धान बेचते हैं, उन्हें बाहर पढ़ने वाले अपने बच्चों को पैसा भेजना होता है, और उससे भी अधिक यह कि जाड़ा बढ़ते जाने से कई घरों में पहनने और ओढ़ने लायक गरम कपड़ों की जरूरत होती है। ऐसे में मजबूरी के मारे लोग खरीददारों की मनमानी पर धान बेच रहे हैं। यही हाल गेंहू के मामले में होता है, और आलू की फसल तो बिजली की कमी से कोल्ड स्टोरेज में भी सड़ जाती है। उनके यहां सरकार की तय की हुई दर का मामला नहीं बनता। गन्ना किसान तो हर साल सरकारी दर पर ही फसल बेचते हैं, और लड़ाई उस पर अध्यादेश को लेकर है। फिर जिस उत्तर प्रदेश में गन्ना और धान-गेंहू वाले किसान हैं, उसी में बुंदेलखंड का हिस्सा भी आता है, जहां से किसानों की आत्महत्या की खबरों से रू-ब-रू होना पड़ता है। वोट बैंक और क्षेत्र की सीमा पहचानने वाले राजनेताओं से महाराष्ट्र के किसानों की फरियाद कैसे की जाय? वहां के विदर्भ की हालत वि·ाव्यापी खबर बनती रही है। आज सिर्फ गन्ना पर संसद और सड़क, दोनों जगह आवाज उठाई जा रही है। क्या यह संभव नहीं है कि पूरे देश के किसानों की लड़ाई समवेत ढंग से लड़ी जाय? पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों के हक के लिए किसान यूनियन पहले से ही लगी है। महाराष्ट्र में मजदूर यूनियनों की तरह किसान संगठन बहुत मजबूत नहीं हुए। इधर जरूर कुछ जन संगठन खेती के मुद्दों पर आगे आये हैं। बुंदेल खंड की मद्धिम आवाज भी जब-तब सुनी जा रही है। पर क्या विदर्भ और बुंदेलखंड की असलियत को संसद और सड़क, दोनों जगह आने का हक नहीं है? ये हक उन क्षेत्रों को कौन दिलाएगा? क्या राजनेता नहीं? क्या अपने अपने क्षेत्र के किसानों की समस्याओं को वे एक साथ नहीं उठा सकते?

Monday 16 November, 2009

बाल गंगाधर तिलक की याद


महाराष्ट्र में मराठा मानुष के नाम पर जब छिछली राजनीति चल रही है, बाल गंगाधर तिलक को याद करना उचित होगा। सन् 1896 में गणोशोत्सव की शुरूआत कर उन्होंने तत्कालीन जनमानस को धर्म के सहारे सामाजिक समरसता से जोड़ने की कोशिश की थी। आज गणेशोत्सव महाराष्ट्र की सीमा लांघ कर देश के किन किन प्रांतों तक पहुंच गया, चर्चा का अलग विषय हो सकता है। कहना तो यह है कि आज उसी महाराष्ट्र में देश के पर प्रांतियों के खिलाफ जहर उगलने का दौर जारी है। शिव सेना मराठा स्वाभिमान को छत्रपति शिवाजी और भगवान शिव के त्रिशूल से आगे महाराष्ट्र बनाम संपूर्ण राष्ट्र तक ले जाने की कुत्सित कोशिश कर रही है। यह मसला इतना आसान नहीं है, जिस पर टिप्पणी मात्र के बाद आगे निकल लिया जाय। मुंबई में उत्तर भारतीयों पर हमले की घटनाओं से उभरा विवाद समुद्री सीमाओं पर छठ पूजा तक पहुंच गया था। यह उसी महाराष्ट्र की राजधानी में हुआ, जिस सूबे में तिलक महाराज ने गणोशोत्सव को राष्ट्र उत्सव से जोड़ा था। अंग्रेजी शासन के खिलाफ लड़ाई में गणोत्सव में एकत्र भारी भीड़ को राष्ट्रीय भावनाओं से ओत प्रोत किया जाता रहा। उसी धरती पर अब प्रांत से पहले देश की बात करने वालों को मराठा मानुष पर आघात करने वाला बताया जा रहा है। ठीक है कि सचिन तेंदुलकर पर बाला साहेब ठाकरे की कटु संपादकीय पर शिवसेना के एक नेता ने सफाई दे दी है। उन्होंने इसे एक बुजुर्ग की सलाह भर बताया है। फिर भी हमें याद रखना होगा कि यह तब हुआ, जब लगभग पूरे देश ने सचिन के इस बयान का साथ दिया कि वे मराठा अथवा मुंबईवासी होने के पहले एक भारतीय हैं। हमें सचिन के इस बयान का न केवल स्वागत करना चाहिए, बल्कि औरों को भी उनसे प्रेरणा लेने की जरूरत है। आज कुछ ही लोगों को ध्यान होगा कि पूर्व अभिनेत्री और सांसद जया बच्चन को इसी तरह का अपना बयान करीब करीब वापस लेना पड़ा था। काश,वह जल्दी में नहीं होतीं, और उनका भी तब समर्थन किया गया होता। जरूरत इस बात की है कि महाराष्ट्र की राष्ट्रीय विभूतियां, चाहें वे किसी भी क्षेत्र की हों, मिलकर सचिन के पक्ष में बयान दें। इस मामले में देर उचित नहीं है। महाराष्ट्र की जनता ने हाल ही में मतदान के जरिए अपना फैसला सुना दिया है। वह दिन दूर नहीं, जब हिंदू महासभा जैसी कट्टर संस्था की तरह शिवसेना का भी कोई नामलेवा नहीं रह जायेगा। हिंदू महासभा से शिवसेना को भी सबक लेनी चाहिए कि धर्म और क्षेत्र विशेष के नाम पर राजनीति का कोई स्थाई भाव नहीं हुआ करता।

Sunday 15 November, 2009

एक बूंद और.....


ब्लॉगर्स के महासमुद्र में एक बूंद इस आशा के साथ कि मंथन की प्रक्रिया में यह भी भागीदार होगी। समुद्र मंथन में स्पष्ट तौर पर हमें दो पक्ष दिखाई देते हैं। पर देव और दानवों के साथ मेरु, रज्जु और यहां तक कि खुद समुद्र के उदर की, समुद्र मंथन में भागीदीरी से कैसे इंकार कर सकते हैं। समुद्र के महोदर में ही तो होते हैं अथाह जलकण। उस जलराशि के एक-एक बूंद का महत्व क्या संपूर्ण समुद्र के अस्तित्व से अलग है। चिंतन के दौर चलते रहते हैं, बहस स्वाभाविक है। फिर भी अणु से परमाणु युग को भी पार करता समय, समुद्र के एक बूंद के अस्तित्व को कैसे नकार सकता है। पिछले साल (संभवतः जून में) "जब-तब' नाम से एक ब्लॉग शुरू किया था, पर वह शुरूआत ही रह गई। उम्मीद जाहिर की थी कि समाज में हो रही हलचल पर कभी-कभी खुद भी कुछ कहा करूंगा। कतिपय कारणों से स्थान परिवर्तन हुआ...और फिर स्मृति भ्रम कि उसे चला नहीं सका। जब-तब के बाद खुद के स्पष्ट नाम से उपस्थिति का मकसद सिर्फ चर्चाओं में यदा-कदा भागीदारी ही है। एक बूंद के साथ प्रारंभ इसलिए कि आइए, मिलकर इस तरह के कई बूंद, और अंततः महासमुद्र का बहु अंश बनाएं। ऐसा निवेदन करते समय यह भ्रम कत्तई नहीं है कि यह प्रक्रिया जड़ है। यह क्रम तो चलता ही रहता है। विचार करें कि एक बूंद, अथवा समाज में एक व्यक्ति की उपस्थिति क्या संपूर्ण समाज, या यूं कहें कि दुनिया के लिए अर्थवान नहीं है। यह सवाल नहीं है, शायद खुद के लिए कैनवस भी, जिस पर रह रहकर रंग उभरा करेंगे। ये रंग सिर्फ एक कूची का नहीं होगा। आइए, कुछ रंग आप भी भरिए! ये रंग कल्पनाओं के हो सकते हैं, पर अंत में फिर सवाल कि रंग यथार्थ भी तो दिखाते हैं?