Thursday, 3 December 2009

कब लौं भुलानी, कब लौं भुलइहौं?

भक्ति साहित्य में ये पंक्ति सर्व विदित है- अब लौं नसानी, अब ना नसइहौं। इस पंक्ति को अपने विषयानुकूल करने का सीधा सा स्वार्थ है कि इसके सहारे अपनी बात आगे बढ़ाई जा सके। हमारे इर्द गिर्द बहुत से ऐसे लोग मौजूद होते हैं, जो अपनी गलतियां नहीं दुहराने की रोज ही कसमें खाते हैं। उन्हें न तीसरी कसम की सीमा याद आती है, और न भक्त कवि की इस पंक्ति से उनका कोई साबका है। आप कहेंगे इस छायावादी मसले को क्यों उठाया जा रहा है। दरअसल यह मामला छायावाद का नहीं है। हम अपने जीवन में आए दिन कोई न कोई गलती करते ही हैं। तय करते हैं कि फिर ऐसा नहीं करेंगे। ई·ारवादी हुए तो और आसान कि भगवान सर्वव्यापी है। किसी और को कुछ बताने की जरूरत नहीं है। अकेले में ईशवर से माफी मांगी, नाक रगड़ा और पापमुक्त हो गये। इन दो तरह के प्राणियों के अतिरिक्त तीसरे स्तर के भले मानुषों की चर्चा भी करनी चाहिए। जिसके साथ कुछ गलत किया,उसी से माफी मांग लेंगे। यह आदर्श स्थिति होती है। अपने मन का मालिन्य धुल जाता है, तो अगला भी मनुष्य जोनि का हुआ तो कोई गिला-शिकवा नहीं रखेगा- "" चलो आदमी ही तो है, गलतियां किससे नहीं होती। कभी मैं भी तो गलती कर सकता हूं।'' फिर भी इस तीसरे किस्म के भले मानुष की चर्चा विस्तार से। आप कहेंगे कि आज कौन अपनी गलती पर पछताने जा रहा, पर नहीं, जरा रुककर सोचिए। गलती करने के बाद अहसास हो कि अगला कोई नुकसान कर सकता है, अथवा यह कि वह भविष्य संवारने में कभी काम का होगा, तो अकेले में उससे छोटा बन जाने में क्या जाता है। ई·ार के सामने तो करोड़ों-करोड़ों रोज छोटे साबित होते रहते हैं। एक के आगे एक के छोटा बनने में क्या हर्ज है। घर में माता-पिता बड़े ही होते हैं, बड़े भाई-बहन के साथ "बड़े' शब्द जोड़ ही दिया गया है। कहा गया है कि -""छमा बड़ेन को चाहिए, छोटन को उत्पात'' इसका अर्थ यह कि छोटे सिर्फ उत्पात करते रहें, माफी तो मिलनी ही है। घर में भी मिलती रही है, बाहर भी मिलेगी। फिर भी कल्पना करिए कि छोटे की उम्र काफी हिस्सा पार कर गई, अब उसके भी छोटे हैं। फिर वह कब तक गलतियां करता रहेगा। शायद ऐसे लोग इस धरती पर आए ही हैं गलती करने के लिए। असल में गलती वह नहीं करते। गलती आपकी है, जो आप उनके सामने होने की हिम्मत करते हैं। सोचिए ऐसा भला मानुष घर में किसी बात पर बीवी से लड़ कर आया हो। बीवी के तर्कों के तीर कारगर रहे हों, बच्चे के दूध का पैसा अभी तक नहीं दिया गया, दूध वाला कह गया है कि कल नहीं दिया तो दूध बंद। फिर और भी तो काम है। कब तक बड़ों के सहारे रहोगे, अब खुद भी तो बड़े बन जाओ। भलमानुष क्या करे, घर में बड़ा बन नहीं पाता, बाहर वाले उसकी भलमनसाहत को जानते हैं, सो वहां भी बड़ा बनने की गुंजाइश नहीं रहती। लिहाजा वह रह रह कर अपने "बड़प्पन' का अहसास कराता ही रहता है। अपने इस बड़प्पन में ये भलेमानुष खोए रहते हैं। आप फिर पूछने की गलती मत कर बैठिएगा- कब लौं भुलानी, कब लौं भुलइहौं?

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