Friday, 11 December 2009
बने एक राज्य पुनर्गठन आयोग
उत्तर प्रदेश के दो हिस्से किए जाने की मांग पर कभी इस राज्य के तत्कालीन मुख्य मंत्री पंडित गोविंद बल्लभ पंत ने खीझ भरे स्वर में कहा था- दो ही क्यों, इस राज्य को चार भागों में बांट देना चाहिए। पंत जी का तब अगला ही वाक्य था- गंगा यमुना की घरती को टुकड़ों में बांटना ठीक नहीं होगा। ध्यान रखना होगा कि उन्हीं पंडित गोविंद बल्लभ पंत ने देश के गृहमंत्री की हैसियत से भाषाई और प्रशासनिक आधार पर राज्यों के पुनर्गठन में बड़ा योगदान किया था। कहने का सबब यह है कि राज्यों का गठन अथवा पुनर्गठन भाषा और प्रशासन के साथ भावनाओं का भी मसला है। यह हो सकता है कि ये भावनाएं समय समय पर किसी राजनीतिक दल अथवा कुछ राजनेताओं के मकसद साधने का जरिया बन जाती हों। पंडित पंत की दृढ़ निश्चयी दृष्टि और फिर कांग्रेस पार्टी में उनकी पकड़ ही थी कि उनके मुख्यमंत्री रहते राज्य विभाजन की हल्की मांग को कोई समर्थन नहीं मिल पाया। पर इस सच्चाई को आज अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि उत्तर प्रदेश में हिमालयी क्षेत्र (जो खुद पंत जी का गृह क्षेत्र भी रहा) उत्तराखंड बनने के बाद आज प्रगति की ओर बराबर अग्रसर है। तो क्या पंडित गोविंद बल्लभ पंत राज्य विभाजन का विरोध कर उत्तर प्रदेश की पहाड़ी जनता के विकास में बाधा खड़ी कर रहे थे? यह कहना देश के इस महान स्वतंत्रता सेनानी के साथ न्याय करना नहीं होगा। इतिहास गवाह है कि उन्होंने पहाड़ों के जंगल और जमीन पर वहां के वाशिंदों को हक दिलाने के लिए विधान सभा में बार बार पहल किया था। आज देखना होगा कि वे पहाड़ की जनता क्या उन जंगलों पर पहले से अधिक हक पाने में सक्षम हुई है। जवाब बहुत कुछ सकारात्मक नहीं होगा। हां यह जरूर हुआ कि छोटा राज्य अधिक बजट के साथ कई क्षेत्रों में कारगर पहल कर रहा है। पर हर छोटा राज्य ऐसा नहीं है। झारखंड इसका उदाहरण है, जहां अपार खनिज संपदा होने के बावजूद आशानुकूल प्रगति नहीं हो सकी। तो फिर हर छोटे राज्य के बारे में यह फार्मूला कारगर क्यों नहीं होता। जवाब वही भावना है। सवाल यह है कि नये राज्य निर्माण के पीछे उसके लिए काम करने वाले नेतृत्व वर्ग की मंशा क्या है। छोटे राज्यों के साथ उन्हे चलाने की एक सुनियोजित दृष्टि भी जरूरी है। आज जब नये तेलंगाना राज्य पर सहमति-असहमति की बहस छिड़ गई है, इसी समय एक और बहस चलानी चाहिए। छोटे राज्य, तय है कि प्रशासनिक दृष्टि से किसी सरकार और शासन के लिए सर्वथा बेहतर होते हैं। पर इसका मतलब यह तो नहीं कि हर जिला एक राज्य बन जाय। जिले के बराबर राज्य में मंत्रिपरिषद, उसके सचिवालय और दूसरे जरूरी खर्चों पर करोड़ों करोड़ रुपये बहाए जायं। जिले में ये प्रसासनिक व्यवस्थाएं तो पहले से ही हैं ( सिर्फ मंत्रिपरिषद छोड़कर)। फिर आप कहेंगे कि इन्हें राज्य मानने में दिक्कत क्या है। दिक्कत यह है कि राज्यों और केंद्र की राजधानी में बैठी सरकार के लिए किसी राष्ट्रीय मुद्दे पर सहमति के लिए सैकड़ों सरकारों से बात करनी पड़ेगी। यह भी कि सरकारों के नाम पर कई तरह के अनुपयोगी और अनुत्पादक मसलों पर अपार धन खर्च होगा। आम सहमति सरकार के लिए आदर्श स्थिति होती है, वहां भावनाओं से काम नहीं चलता। इसमें दो राय नहीं कि तेलंगाना आंध्र के दूसरे क्षेत्रों से पिछड़ा है। फिर भी उसके विकास पर बात करने की जगह दबाव में राज्य बनाने की बात मान लेन से देश के दूसरे क्षेत्रों में भी ऐसी दबी मांगें फिर से उठने लगी हैं। यह संकेत बेहतर नहीं कहे जा सकते। जरूरत इस बात की है कि आज फिर से एक राज्य पुनर्गठन आयोग बनाकर सारे संबेधित मसलों पर विचार किया जाय। आयोग बनाते समय उसके स्वरूप का भी ख्याल रखना होगा। उसमें पूरे देश का प्रतिनिधित्व जरूरी होगा।
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
1 comment:
बहुत खूब.....राज्यों की मांग पर वास्तव में राज्य पुनर्गठन आयोग जैसे आयोग की जरूरत है....और इसमें कम से कम मै तो दो राय नहीं हूं....लेकिन इसके लिए परिस्थितियों, भाषा, भौगोलिक, आर्थिक हर पक्ष को साथ लेकर ही निर्णय लेना चाहिए...जिसकी आपने भी हिमायत की है....लेकिन ओझा जी ऐसा हो कहां रहा है....राज्यों की मांग तो नेता सिर्फ अपने फायदों के लिए कर रहे हैं....जनता को तो सिर्फ एक जरिया बनाकर इस्तेमाल किया जा रहा है....यानि बंदूक किसी की और कंधा किसी का....ऐसे में जनता को ...जो इन मतलबपरस्त नेताओं को ...जिन्हें वो भगवान समझ बैठे हैं....उनकी असलियत जाननी होगी...इसके लिए पहल सभी को करनी पड़ेगी...ताकि अगर राज्य बनें भी ...तो प्रगति के लिए ना कि राजनीतिक रोटियां सेकने के लिए
Post a Comment