Wednesday, 18 November 2009

इन किसानों की भी तो सुनो.........

मेरे गृह जनपद बलिया में मेरा घर ब्लॉक और तहसील मुख्यालय बांसडीह में है। तब मैं छोटा था। कई दूसरे लोगों की तरह तब के खंड विकास अधिकारी (बी. डी. ओ.) भी मेरे घर आया जाया करते थे। उन्होंने गेंहू के नये आये कुछ बीज दिए। इसलिए कि उन्हे हमारी पारिवारिक खेती के जमीन में उगाया जाय। पंतनगर से आये बीज को खेतों में बोया गया। बगल से गुजरती नहर के अलावा उस खेत के कोने में कुंआ भी है। बी डी ओ साहब की राय के अनुसार समय पर पानी, ऊर्वरक और कीटनाशक डाले जाते रहे। इतनी देखरेख के बाद खेती बेहतर होनी ही थी। हमारा वह खेत आसपास की खेती को मुंह चिढ़ा रहा था। लगा, जैसे हम विशिष्ट किसान परिवार हो गये हों (यह अलग बात है कि तब और आज भी हमारे घर की खेती दूसरों को आधी फसल की शर्त पर दी जाती है)। बहरहाल, यह संदर्भ याद आने की वजह संसद के शीतकालीन सत्र के पहले दिन दिल्ली में गन्ना किसानों का प्रदर्शन है। यह कहने में कोई संकोच नहीं कि ये किसान पश्चिमी उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के उन क्षेत्रों के हैं, जो उन्नत खेती के लिए पहचाने जाते हैं। वे उन्नीस नवंबर को लाखों की संख्या में दिल्ली इसलिए पहुंचे कि गन्ने का मूल्य बढ़ाने के लिए सरकार पर दबाव डाल सकें। बात खेती और सरकार के बीच की है। इसलिए विपक्ष भी इस मामले में पीछे क्यों रहे। दो प्रमुख राजनेता, किसान यूनियन के नेता महेंद्र सिंह टिकैत के साथ खड़े हो गये हैं। टिकैत बड़ा किसान आंदोलन शुरू करने के बावजूद कभी राजनेता नहीं बन सके। उनकी बोई फसल चौधरी अजीत सिंह के साथ पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव काटते रहे हैं। वे भी इन गन्ना किसानों के प्रबल हिमायती बन खड़े हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि महंगाई के साथ खेती में लागत भी बेतहाशा बढ़ी है। किसानों को लगता है कि लागत के मुकाबले उन्हें बाजार से काफी कम मिलता है। फिर चीनी की आसमान छूती कीमत भी उन्हें प्रेरित करती है कि जिस गन्ने से चीनी बनती है, उसका मूल्य भी तो बढ़ना ही चाहिए। किसानों की उनकी मांग पर कोई एतराज भला किसको हो सकता है। इसके बावजूद राजनेताओं के सामने कुछ सवाल हैं। बात जहां से शुरू की थी, वहीं चलते हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश में जहां मेरा गृह जनपद है, गन्ना भी उगाया जाता है। इसलिए रसड़ा के साथ सीमावर्ती जिलों में भी चीनी मिलें हैं। फिर भी गन्ने के मुकाबले दूसरी फसलें वहां ज्यादा होती हैं। शायद इसलिए कि गन्ने के लिए सिंचाई की बेहतर व्यवस्था और उसकी रखवाली इस क्षेत्र के किसानों के लिए भारी पड़ता है। नदियों के किनारे जब बाढ़ से बचे हों, और नहरों की सुविधा वाले क्षेत्र में धान की फसल होती है। प्रमुख रूप से धान के साथ यहां गेंहू भी पैदा होती है। इन दिनों पूर्वी उत्तर प्रदेश के खलिहान इसलिए भी देखने लायक हैं कि वहां खरीदारों की गाड़ियां लगी रहती हैं। आप को लग सकता है कि गन्ने की तरह यह मनी क्राप हो गई है, पर यह समझना भूल होगी। ऐसे किसान तो कम ही हैं, जो अपने यहां कम जगह होने से सारा धान रख नहीं पाते हों, और खलिहान से ही उसका बड़ा हिस्सा बेच देते हैं। जो दूसरे किसान धान बेचते हैं, उन्हें बाहर पढ़ने वाले अपने बच्चों को पैसा भेजना होता है, और उससे भी अधिक यह कि जाड़ा बढ़ते जाने से कई घरों में पहनने और ओढ़ने लायक गरम कपड़ों की जरूरत होती है। ऐसे में मजबूरी के मारे लोग खरीददारों की मनमानी पर धान बेच रहे हैं। यही हाल गेंहू के मामले में होता है, और आलू की फसल तो बिजली की कमी से कोल्ड स्टोरेज में भी सड़ जाती है। उनके यहां सरकार की तय की हुई दर का मामला नहीं बनता। गन्ना किसान तो हर साल सरकारी दर पर ही फसल बेचते हैं, और लड़ाई उस पर अध्यादेश को लेकर है। फिर जिस उत्तर प्रदेश में गन्ना और धान-गेंहू वाले किसान हैं, उसी में बुंदेलखंड का हिस्सा भी आता है, जहां से किसानों की आत्महत्या की खबरों से रू-ब-रू होना पड़ता है। वोट बैंक और क्षेत्र की सीमा पहचानने वाले राजनेताओं से महाराष्ट्र के किसानों की फरियाद कैसे की जाय? वहां के विदर्भ की हालत वि·ाव्यापी खबर बनती रही है। आज सिर्फ गन्ना पर संसद और सड़क, दोनों जगह आवाज उठाई जा रही है। क्या यह संभव नहीं है कि पूरे देश के किसानों की लड़ाई समवेत ढंग से लड़ी जाय? पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों के हक के लिए किसान यूनियन पहले से ही लगी है। महाराष्ट्र में मजदूर यूनियनों की तरह किसान संगठन बहुत मजबूत नहीं हुए। इधर जरूर कुछ जन संगठन खेती के मुद्दों पर आगे आये हैं। बुंदेल खंड की मद्धिम आवाज भी जब-तब सुनी जा रही है। पर क्या विदर्भ और बुंदेलखंड की असलियत को संसद और सड़क, दोनों जगह आने का हक नहीं है? ये हक उन क्षेत्रों को कौन दिलाएगा? क्या राजनेता नहीं? क्या अपने अपने क्षेत्र के किसानों की समस्याओं को वे एक साथ नहीं उठा सकते?

4 comments:

राजन अग्रवाल said...

kisano ke desh me unki hi sudh lene wala koi nahin

bindas bol said...

lekh behtar lga...isme bat ki gayee hai..shetra ke pratinidhiyo ki bat na hi ki jae to accha hai.....kyoki unko to sirf pocket bharne se matlab hai... jab chunav ka vakt hoga..to hath jodkar aur ashwasan dekar vote le lenge...unka to bus yhi kam hai....kisano ke haq kisunne wala kaun hai....sab vote ki rajniti hai

राजन अग्रवाल said...

bahut khub

vichar said...

ganaa kisano par lekh jankari ke sath hi kafi kutch kahta bhi hai. umid ki jai kai sarkar aur smbandhit log kisano ke hal par jaroor kutch sakaratmak kadam lenge.