prabhatojha

अपने नाम को ही सामने रख आपसे साक्षात्कार की कोशिश क्या फर्क पड़ता है कि इस नाम को कितने लोग जानते हैं आखिर एक-एक की संख्या से ही तो समुदाय बना करते हैं

Monday, 22 August 2011

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prabhat ojha
इलाहाबाद वि·ाविद्यालय में स्नातक करते समय ही ए. आई. एस.एफ. से जुड़ा, राष्ट्रीय समिति तक का सदस्य बना। हिंदी में पीजी करने के बाद छात्र राजनीति में भागीदारी कुछ बढ़ गई। परिणाम हुआ कि गुरुवर डॉक्टर जगदीश गुप्त की प्रबल इच्छा के बावजूद उनके सामने डी. फिल. पूरी नहीं कर सका। मेरे मीडिया में आने का फैसला संगठन के शुभचिंतकों और मित्रों ने ही किया था। इसके बावजूद आज भी नहीं कह सकता कि यह मेरी इच्छा के खिलाफ हुआ। घर वाले तो इलाहाबाद भेजकर मुझे किसी और रूप में देखना चाहते थे। इस बीच वामपंथी राजनीति के कई बदलाव पर वाद- प्रतिवाद जारी रहा। उसी दौर में दो दशक से भी पहले सक्रिय राजनीति से अलग हो गया। इस बीच आज से शुरू हुआ मीडिया का सफर,अमृत प्रभात, दैनिक जागरण और अमर उजाला होता हुआ इलेक्ट्रानिक तक आ पहुंचा है। काम और व्यवहार से वरिष्ठ जन के दिलों में थोड़ी जगह बनाई...तो उसी के चलते कुछ ने मुझ पर मीठी छुरी भी चलाई। जहां जहां रहा संपादकीय पृष्ठ पर जगह मिलती रही। लोगों से संवाद का यह सिलसिला जारी रखने की इच्छा बनी रहती है।
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